अँगरेज़ी के शिशु-साहित्य में "राबिन्सन क्रूसो" का बहुत आदर है। इसके लेखक का नाम डैनियल, डी फ़ो है। लोगों का अनुमान है कि अलेकजेंडर सेलकार्क के वृत्तान्त के अवगत करके लेखक ने इसकी रचना की है। अलेकजेंडर सेलकार्क एक अँगरेज़ जहाज़ी था। जहाज़ डूब जाने से एक बियाबान टापू में पहुँच कर उस ने अपने प्राण बचाये थे। वहाँ पर मुद्दत तक अकेले रहने के बाद, उद्धार होने पर, वह अपने देश में पहुंचा था।
"क्रूसो" की आख्यायिका एक ओर जैसी अद्भुत और कैतूहल-पूर्ण घटनाओं से युक्त है उसी तरह दूसरी ओर शिक्षाप्रद है। इसी कारण इंग्लैंड में इस पुस्तक का इतना आदर है। यहाँ ऐसा विरला ही घर होगा जिस में इस पुस्तक के किसी न किसी संस्करण की एक आध प्रति न हो । और ऐसे बच्चे भी खेजने से मिले तो मिले जिन्होंने इस पुस्तक को बड़ी चाव के साथ कई बार पढ़ा न हो।
बच्चों की कल्पना को जागृत करने के लिए ही इस है पुस्तक का हिन्दी में पूरा पूरा अनुवाद किया गया है। अनुवाद में अनावश्यक विस्तार के सिवा और कोई भी अंश छोड़ा नहीं गया। सारी घटनाओं का वर्णन इसमें आ गया है। अनुवाद को सहजबोध्य और रोचक बनाने की चेष्टा की गई है।
जिन के लिए यह पुस्तक लिखी गई है उनका मनोरञ्जन हो तो श्रम सफल समझा जायगा।
सम्पादक
मेरे पिता ज्ञानी और गम्भीर प्रकृति के मनुष्प थे। उन्होंने मेरा कठिन उद्देश्य और अभिप्राय समझ कर एक दिन सवेरे मुझको अपनी बैठक में बुलाया। वे बातव्यथा से पीड़ित होकर खाट पर पड़े थे। वे मुझे अपने पास बैठा कर भाँति भाँति के सुन्दर और समीचीन उपदेश देने लगे। उन्होंने अत्यन्त गम्भीर तापूर्वक मुझसे पूछा—एकमात्र भ्रमण लालसा के अतिरिक्त क्या स्वदेश का सुख और पिता के आश्रय की सुविधा छोड़ कर तुम्हारे विदेश जाने का और भी कोई कारण है?
अपने देश में तुम्हारा -खच्छन्द से निर्वाह हो सकता है, तुम अपने देश में रह कर परिश्रम और अध्यवसाय के द्वारा मज़े में आर्थिक उन्नति भी कर सकोगे। किन्तु विदेश में तो किसी बात का कुछ निश्चय नहीं। सभी अनिश्चित है। वहाँ न किसी से जान पहचान, न संकट के समय कोई सहायक होगा। जो लोग अपने देश में किसी तरह अपनी दशा की उन्नति नहीं कर सकते अथवा जिनकी उच्च आकांक्षा अपने देश में फलित नहीं होती वही लोग प्रायः विदेश जाते हैं। तुम्हारी अवस्था इन दोनों से भिन्न है, तो फिर तुम क्यों विदेश जाना चाहते हो?
हम मध्यम श्रेणी के मनुष्य हैं। न हम दरिद्रता के दुःख से दुखी हैं, न धनाढ्य के भोगविलास के दम्भ से चंचल हैं। यह जो दारिद्रय और ऐश्वर्य को मध्यवर्तिनी अवस्था है, इस अचिन्त्य अवस्था की जो सुख स्वच्छन्दता है, उसे देख राजा महाराजों का भी जी ललचाता है। विद्वान लोगों ने मुक्त कण्ठ से इस अवस्था की प्रशंसा की है।
वे मुझे अपने पास बैठा कर भाँति भाँति के सुन्दर और समीचीन उपदेश देने लगे।
इस जीवन-संग्राम में धनी और निर्धनों को सब प्रकार का दुःख सहना पड़ता है, किन्तु मध्यावित्त बालों को बैसा दुःख भोगने का अवसर नहीं आता । धनवान लोग अनाचार के असंयम और विलासपरायणता में पड़ कर और दरिद्र लोग कदन्न-भक्षण या निराहार के द्वारा स्वास्थ्य भंग करके जो अनेक कष्ट और अशान्ति भोगते हैं, उन यात- नाओं से मध्यवित्त के मनुष्य बिलकुल बचे रहते हैं।
इसलिए वत्स!
लड़कपन करके निश्चित सुख-शान्ति के लात मार कर, एकाएक विपत्ति के रुप में मत कूद पड़ो । मेरी बात पर ध्यान दो, नितान्त मूर्खों की भाँति काम करके बूढ़े माँ-बाप को कष्ट देना क्या ठीक है? मैं बार बार तुम्हें सावधान करता हूँ-पिता के वचन की अवहेलना करने से भगवान् अप्रसन्न होंगे, उससे तुम्हारा अमंगल होगा।
यह कहते कहते उनका कण्ठ सँध गया, फिर वे कुछ बोल न सके। उनकी आंखों से झर झर कर आँसू गिरने लगे ।
यह देख कर मेरा जी व्याकुल हो उठा । मैंने निश्चय किया कि अब विदेश न जाऊँगा । पिता की इच्छा और आदेश के अनुसार देश में ही रह कर कोई रोज़गार करूंगा।
किन्तु हा खेद!
कुछ ही दिनों में मेरी यह प्रतिज्ञा छूमन्तर हो गई । मेरी बुद्रि फिर विदेशभ्रमण के लिए चंचल हो उठी। विदेश जाने के लिए फिर मेरी जीभ से लार टपकने लगी । पिता के अनुरोध से छुटकारा पाने के लिए मैंने कई सप्ताह के अनन्तर घर से भाग जाने ही का निश्चय किया।
किन्तु कल्पना के पहले उत्तेजना ने मुझे जितना पाबन्द कर रक्खा था, उतना शीघ्र में नहीं भागा। एक दिन मैंने अपनी माँ के कुछ विशेष प्रसन्न देख कर कहा—माँ, मेरा मन विदेश देखने के लिए इतना व्यग्र हो रहा है कि मैं उसे किसी तरह शान्त नहीं कर सकता । मेरी उम्र अठारह वर्ष की हो चुकी । मैं इतनी उम्र में चाहता तो कोई व्यवसाय करता या कहीं अध्यापनवृत्ति करता पर ये सब काम मुझसे न होंगे कारण यह कि उन कामों में मेरा जी ही नहीं लगता। मेरा मन यही चाहता है कि मैं कामधन्धा छोड़ कर देश देशान्तर में घूमता फिरूँ, या एक दिन अपने मालिक का काम छोड़ कर समुद्र की ओर रवाना हो जाऊँ। मेरी उम्र अब विदेश जाने योग्य हो गई । तुम लोग एक बार मुझे समुद्र की सैर कर आने दो । यदि समुद्र यात्रा मेरे पसन्द न आवेगी तो मैं घर लौट आऊँगा औौर तुम लोगों का आाज्ञाकारी हो कर रहूंगा; तब तुम लोग जो कहोगी वही कहूंगा । पिता जी से कह कर तुम उन से अनुमति दिला दो, नहीं तो तुम लोगों की अनुमति लिये बिना ही मैं चला जाऊँगा। क्या यही अच्छा होगा?
मेरी बात सुन कर माँ क्रोध से एकदम जल-भुन उटी । वह बोली—मैं यह बात उनसे कभी न कह सकेंगी; तुम्हारे जी में जो आवे सो करो, आप ही दुःख भोगोगे । इसमें हम लोगों का क्या? हम बूढ़ी , आज हैं, कल नहीं । हम तुम्हारी ही भलाई के लिए कहती सुनती हैं।
यद्यपि माँ ने यह बात पिता से न कहने ही के ऊपर ज़ोर दिया था ता भी थोड़ी ही देर के बाद मैंने सुना कि उन्होंने सब बातें पिता जी से जाकर कह सुनाई । वे सब बातें ध्यानपूर्वक सुन कर लम्बी साँस लेकर बोले—लड़के को कुबुद्धि ने आ घेरा है । उसके भाग्य में कष्ट बदा है। अपने मन से जाना चाहे तो चला जाय, मैं जाने की सलाह न दूंगा।
इस प्रकार मेरे हठ और माता-पिता के निरोध की खींचातानी में एक वर्ष बीत गया। एक दिन संयेाग पा कर मैं हल बन्दर की ओर झूमने गया। जाते समय मेरा भागने का इरादा बिलकुल ही न था। किन्तु वहाँ जाकर मैंने देखा, मेरा एक साथी अपने पिता के जहाज़ पर सवार होकर समुद्रपथ से लन्दन जा रहा है। वह अपने साथ मुझको ले जाने के लिए बार बार अनुरोध करने लगा और मुझ से कहने लगा कि जाने का तुम्हें कुछ खर्च न देना होगा। तब मैं माँ-बाप की अनुमति की अपेक्षा न कर के, उन लोगों को अपने जाने की कोई खबर दिये बिना ही जाने को प्रस्तुत हुआ। १६५१ ईसवी की पहली सितम्बर मेरे लिए एक अशुभ मुहूर्त था। उसी अशुभ मुहूर्त में शुभा-शुभ परिणाम की कुछ परवा न कर के, पिता-माता के बिना कुछ खबर दिये ही, ईश्वर से मङ्गल और माँ-बाप से आशीर्वाद की प्रार्थना किये बिना ही मैं उस लन्दन जानेवाले जहाज़ में जा बैठा।
यात्रा का आरम्भ होते न होते मेरी विपत्ति का आरम्भ होगया। जहाज़ खुल कर अभी बीच समुद्र में भी न गया था कि हवा ज़ोर से चलने लगी और समुद्र का जल ऊपर की ओर उछलने लगा। तरङ्ग पर तरङ्ग उठने लगी। देखते ही देखते समुद्र का आकार भयङ्कर हो उठा। मैंने इसके पूर्व कभी समुद्रयात्रा न की थी, इसलिए मेरा जी घूमने लगा। बारंबार वमन के वेग से शरीर, और डर से हृदय, काँपने लगा। मैं मन ही मन सोचने लगा--"दुष्ट महामूर्ख की भाँति कर्तव्य की अवहेला करके, पिता के पास से भागने का यह उचित दण्ड ईश्वर ने दिया । "उस समय माँ-बाप के अनुनय, अश्रुजल और उपदेश मुझे याद आने लगे । ईश्वर और पिता के प्रति मेरे कर्तव्य की त्रुटि के लिए मेरी धर्मबुद्धि मुझ को बार बार धिक्कारने लगी ।
आँधी का वेग क्रमशः बढ़ने लगा और समुद्र का जल ताड़ के बराबर ऊपर बढ़ गया । दो-एक दिन पहले मैने आँधी और समुद्र का जैसा कुछ भयङ्कर रूप देखा था उससे कहीं बढ़ कर आज की आँधी और समुद्र की अवस्था थी । मेरे प्राण सुखाने के लिए अभी यही यथेष्ट था । क्योंकि उस समय मेरी उम्र नई थी और समुद्र के साथ मेरा यही प्रथम परिचय था । समुद्र की भीषण मूर्ति देख कर मैं यही सोचने लगा कि हम लोगों की जीवनलीला आज ही समाप्त होगी । जब मैं एक से एक ऊँची तरङ्ग को आते देखता तब मेरे मन में यही होता था कि अब की बार इसी के भीतर हम लोगों की चिरसमाधि लगेगी । प्रत्येक बार जहाज़ तरङ्ग के ऊपर चढ़ कर मानो आकाश को चूमता था, और दो तरङ्गों के बीच के गढ़े में पड़ने पर ऐसा मालूम होता था । मानो वह पाताल में जा रहा है, अब फिर कभी ऊपर न आवेगा । यह भयङ्ककर दृश्य देख कर मेरे होश उड़ गये । हृदय की ऐसी अधीरता के समय मैं ईश्वर से बार बार क्षमा की प्रार्थना और मन ही मन प्रतिज्ञा करने लगा कि भगवान्!
इस बार यदि मेरे प्राण बच गये यदि खुशीखुशी समुद्र-तीरवर्ती सूखी ज़मीन पर मैं पैर रख सका तो इस जीवन में फिर कभी जहाज़ पर न चढ़ूँँगा और न कभी समुद्रयात्रा का नाम ही लूंँगा । समुद्र के किनारे पाँव रखते ही एकदम पिता जी के पास हाज़िर हो जाऊँगा । उनके उपदेश की उपेक्षा कर फिर कभी इस तरह की विपत्पयोधि में न धँसूँगा । तूफ़ान जितना ही सख्त होने लगा उतना ही पिता के उपदेश का मीठापन मेरे हृदय को अनुतप्त करने लगा ।
जब तक तूफान का वेग प्रबल था तब तक और उसके पीछे भी कुछ देर तक, यह सुबुध्दि मेरे हृदय पर अधिकार जमाये रही । दूसरे दिन वायु का वेग कुछ कम हुआ । समुद्र ने भी पहले से कुछ शान्तमूर्ति धारण की । मैं भी समुदयात्रा में कुछ कुछ अभ्यस्त हो चला । फिर भी उस दिन मैं बराबर गम्भीर भाव धारण किये रहा । किन्तु तब भी मेरा जी कुछ कुछ घूम रहा था और रह रह कर मुँँह में पानी भर आता था । साँझ होते होते आँधी एकदम रुक गई । सायंकाल का दृश्य अत्यन्त मनोहर देख पड़ा । सूर्य भगवान् समुद्र के ऊपर मानो सोना ढाल कर अस्त हुए । दूसरे दिन भी वैसी ही सुनहरी किरणों की शोभा विस्तीर्ण करके उदित हुए । यह देख कर मेरा चित्त फिर प्रफुल्ल हो उठा और जान पड़ा माने इस जीवन में ऐसा सुन्दर दृश्य कभी न देखा था ।
रात में मुझे अच्छी नींद आई और वमन का उद्वेग भी शान्त हो गया । मैं पूर्व दिन के उत्तुंग तरंग-भीषण समुद्र को इस समय प्रशान्त और सुन्दर देखकर विस्मित हो रहा था । तब मेरा साथी, जिसके प्रलोभन से मैं आया था, मेरे पास आकर और मेरी पीठ को थपथपाकर कहने लगा-—क्यों जी राबिन्सन!
कल ज़रा हवा तेज़ हुई थी तब से तुम खूब डरे थे? उसकी यह बात सुनकर मैं अवाक् हो गया । भला यह क्या कह रहा है? इतनी बड़ी आँधी इसके निकट एक तेज़ हवा मात्र है । तब न मालूम आँधी कैसी होगी? जो हो, अपने साथी का उत्साहवाक्य सुनकर और समुद्र की मनेहरता देख कर मैं पूर्व दिन की सब प्रतिज्ञायें और संकल्प धीरे धीरे भूलने लगा । बीच बीच में सुविद्धि का उदय होता भी था तो उसे मैं मानसिक दुर्बलता कह कर मन से दूर कर देने लगा । पाँच छः दिन में जब में समुद्र के स्वभाव से कुछ कुछ परिचित हो गया तब फिर उन सुविचारों का हृदय पर असर न होने दिया । किन्तु इस औद्धत्य के कारण विधाता ने मेरे भाग्य में अनेक तिरस्कार और लञ्छनाओं की व्यवस्था पहले ही ठीक कर रक्खी थी।
समुद्र-यात्रा के छठे दिन हम लोगों का जहाज़ यारमाउथ बन्दर में आ लगा । आँधी आने के पीछे आज तक हवा प्रतिकूल और समुद्र स्थिर था, इसलिए हम लोग बहुत ही थोड़ी दूर आगे बढ़ सके । हम लोगों ने बाध्य होकर यहाँ लङ्गर डाला । सात आठ दिन तक वायु प्रतिकूल चलती रही, इस कारण हम लोग वहाँ से हिलडुल न सके । इसी बीच न्यूकैसिल से बहुत से जहाज़ इस बन्दर में आकर अनुकूल वायु की प्रतीक्षा करने लगे ।
हम लोग इतने दिन इस बन्दर में बैठे न रहते, नदी के प्रवाह की विपरीत दिशा में चले जाते; किन्तु हवा का वेग बढ़ते बढ़ते चार पाँच दिन के बाद बहुत प्रबल हो उठा । परन्तु नदी के मुहाने को बन्दर की ही भाँति निरापद जान कर और हम लोगों के जहाज़ की रस्सी को बहुत मजबूत समझ कर माँझी लोग निश्चिन्त और निःशङ्कभाव से समुद्र
समुद्र-यात्रा के छठे दिन हम लोगों का जहाज़ यारमाउथ बन्दर में आ लगा । आँधी आने के पीछे आज तक हवा प्रतिकूल और समुद्र स्थिर था, इसलिए हम लोग बहुत ही थोड़ी दूर आगे बढ़ सके । हम लोगों ने बाध्य होकर यहाँ लङ्गर डाला । सात आठ दिन तक वायु प्रतिकूल चलती रही, इस कारण हम लोग वहाँ से हिलडुल न सके । इसी बीच न्यूकैसिल से बहुत से जहाज़ इस बन्दर में आकर अनुकूल वायु की प्रतीक्षा करने लगे ।
हम लोग इतने दिन इस बन्दर में बैठे न रहते, नदी के प्रवाह की विपरीत दिशा में चले जाते; किन्तु हवा का वेग बढ़ते बढ़ते चार पाँच दिन के बाद बहुत प्रबल हो उठा । परन्तु नदी के मुहाने को बन्दर की ही भाँति निरापद जान कर और हम लोगों के जहाज़ की रस्सी को बहुत मजबूत समझ कर माँझी लोग निश्चिन्त और निःशङ्कभाव से समुद्र की आँधी के समय की भाँति बड़ी सावधानी और फुरती के साथ समय बिता रहे थे । आठवें दिन सवेरे वायु का वेग और भी प्रबल हो उठा । हम लोग जहाज़ सँभालने में जी जान से लग पड़े । मस्तूल का ऊपरी हिस्सा नीचे गिरा दिया । और ऐसी व्यवस्था करने लगे जिसमें जहाज सुरक्षित होकर हम लोगों को आराम दे । दो पहर होते होते समुद्र ने भयङ्कर रूप धारण किया । हम लेागों के जहाज का अग्रभाग और पीछे का हिस्सा जल में ऊब डूब करने लगा । समुद्र के प्रत्येक हिलकोरे में जहाज के भीतर जल आने लगा । कप्तान ने और कोई उपाय न देख एक बड़ा लंगर फेंक देने का आदेश दिया और लंगर की जितनी ज़ंज़ीरें थीं सब पानी में छोड़ दी गई ।
क्रमशः तूफ़ान भयानक हो उठा । उस समय मैंने नाविकों के चेहरे पर भी भय का चिह्न देखा । जहाज की रक्षा के प्रबन्ध में व्यग्र होकर कप्तान बार बार अपनी कोठरी में जाते थे, और बार बार बाहर आते थे । उनको मैंने आप ही आप यह कहते सुना था, "हे ईश्वर दया करो,हा सर्वनाश हुआ, हम लोगों की जान गई ।" तूफ़ान की प्रथम अवस्था में में कुछ निश्चिन्त सा होकर चुपचाप अपनी कोठरी में पड़ा था, और अपने मन में सोच रहा था कि यदि बहुत बड़ा तूफ़ान होगा तो उस दिन का ऐसा होगा । किन्तु स्वयं कप्तान को भीत होते देखकर मैं बेहद डरा ।
मैंने अपनी कोठरी से बाहर आकर जो भयंकर दृश्य देखा, उससे मेरे होश उड़ गये । पर्वत की तरह उच्च आकर धारण कर समुद्र तीन चार मिनट के भीतर ही हमारे जहाज़ को ले देकर रसातल में पहुँचा देगा । मैं जिस ओर देखता था उधर विपत्ति ही विपत्ति नज़र आती थी । माल से भरे दो जहाज़ों के मस्तूल जड़ से काट कर इसलिए फेंक दिये गये कि वे कुछ हलके हो जायँ । एक भी जहाज़ ऐसा न था जिसका मस्तूल खड़ा हो; लंगर कट जाने से दो जहाज़ समुद्र की ओर प्रधावित होकर बाहर निकल गये । हमारे जहाज़ के नाविक गण कहने लगे–-“यहाँ से एक मील पर एक जहाज़ डूब गया है ।" केवल बोझ से खाली जहाज़ कुछ निरापद और स्वच्छन्द थे, किन्तु उनमें भी दो जहाज़ हमारे जहाज़ के निकट चले आये थे ।
सन्ध्या-समय हमारे जहाज़ के मेट और मल्लाहों ने मस्तूल काटकर जहाज़ हलका करने के लिए कप्तान की अनुमति चाही; किन्तु इसमें उनकी सम्मति न थी; पर मल्लाहों ने जब उनको अच्छी तरह समझा कर कहा कि मस्तूल न काटने से जहाज़ न बचेगा, तब लाचार होकर उन्होंने आज्ञा दे दी । आज्ञा होते ही मल्लाहों ने मस्तूल काट कर जितने डेक थे सबों को एक दम साफ़ कर दिया ।
यह हाल देख-सुन कर मेरे चित्त की जो अवस्था हो रही थी वह अनिर्वचनीय है । क्रमशः तूफ़ान ने ऐसा भयानक रूप धारण किया जिससे मल्लाह भी कहने लगे कि "ऐसा तूफ़ान हम लोगों ने कभी न देखा था ।" हम लोगों का जहाज़ बहुत मज़बूत और अच्छा था, किन्तु बोझा बहुत था, इससे वह ऐसा बेढब हिलने डुलने लगा कि मल्लाह लोग भी रह रह कर चिल्ला उठते थे कि "अब की बार जहाज़ गया, अब डूबा, इस बार अब न बचेगा ।" मैंने अब तक कभी जहाज़ डूबते नहीं देखा था, इससे कुछ जीवित दशा में था, नहीं तो भय से ही मर गया होता । मैंने देखा कि जहाज़ के कप्तान, माझी, मल्लाह और मेट आदि, जो सहज ही डरने वाले न थे वे लोग भी, लग्गी-पतवार छोड़ कर ईश्वर की प्रार्थना करने बैठ गये । सभी लोग पल पल में समुद्र की तलहटी में जाने की आशङ्का कर रहे थे ।
इसी प्रकार उद्वेग और अशंका में समय कटने लगा । आधी रात के समय एक नाविक ने आकर ख़बर दी कि जहाज़ में छेद हो गया है । एक और व्यक्ति ने ख़बर दी कि जहाज़ के भीतरी पेदे में चार फुट पानी भर गया है । तब सब लोग पानी उलीचने के लिए बुलाये गये । इतनी देर में मैं अकर्म्मणय हो बैठा था, क्यों कि मैं नौका-सम्बन्धी विद्या में अपटु था । मैं न जानता था कि क्या करने से जहाज़ की रक्षा होगी । नौका-सचांलन की शिक्षा का प्रारम्भ ही किया था । किन्तु इस समय पम्प चलाने के लिए मेरी भी पुकार हुई । मैं भय से काँपता हुआ कोठरी से निकल चला ।
हम लोग प्राणपण से पम्प चला कर जहाज़ में से पानी उलीच कर बाहर फेंक रहे थे । इतने में हमारे जहाज़ से विपत्ति के संकेत-स्वरूप तोप का शब्द हुआ । मैंने समझा, या तो जहाज़ टूट गया है या और ही कई भयानक दुर्घटना हुई है । मैं ख़ौफ़ के मारे मूर्छित हो गिर पड़ा । उस समय सभी लोग अपने अपने प्राण बचाने की फिक्र में थे, किसी ने मेरी अवस्था पर ध्यान न दिया । एक व्यक्ति ने मुझे मुर्दा समझ कर लाठी से अलग हटा दिया और मेरी जगह आकर आप पम्प चलाने लगा । मैं बहुत देर बाद होश में आया और देह झाड़ कर उठ खड़ा हुआ ।
जहाज़ छोड़ने के पन्द्रह मिनट पीछे हम लोगों का जहाज़ डूबने का उपक्रम करने लगा । तब मैं अच्छी तरह समझ गया कि जहाज़ का डूबना कैसा भयंकर दृश्य है!
जब नाविक गण कहने लगे कि जहाज़ डूब रहा है तब मारे भय के मैं आंख उठा कर उस तरफ़ देख तक नहीं सकता था । जब से जहाज़ वालों ने झट पट जहाज़ से उतार कर मुझे नाव पर बैठा दिया था तब से भय और भविष्य की चिन्ता से मेरा प्राण अब-तब में हो रहा था ।
हम लोगों की नाव जब उच्च तरंग के ऊपर आ पड़ती थी तब समुद्र का किनारा देख पड़ता था, और हम लोगों की नौका समुद्रतट के निकटवर्ती होने पर सहायता करने की इच्छा से कितने ही लोग समुद्र के किनारे इधर उधर दौड़ते हुए दिखाई दे रहे थे । किन्तु हम लोगों की नाव किनारे की ओर बहुत ही धीरे धीरे जा रही थी । नाव बहुत दूर तक बह कर एक खाड़ी में जा पड़ी इससे हवा कम लगने लगी । तब हम लोग बड़े परिश्रम से नाव को किनारे लगा कर सूखी जमीन पर उतर आये और स्थलमार्ग से यारमाउथ लौट गये । वहाँ के अधिवासी सौदागर और मजिस्ट्रेट प्रभृति सभी सज्जनों ने हम लोगों के दुर्भाग्य पर सहानुभूति प्रकट कर आश्रय और साहाय्य दिया और प्रत्येक को हल या लन्दन शहर जाने तक का राह-ख़र्च देने की भी कृपा की ।
इस समय मैं यही सोचने लगा कि किधर का रास्ता पकड़ूँ । सुबुद्धि होने से अपने घर लौट जाना उचित था । किन्तु मेरी ज़िद मुझे विनाश-पथ की ही ओर बलात् खींच कर ले जाने लगी । घर जाकर माँ बाप और पड़ोसियों को मुख दिखलाने में लज़ा-होने लगी । मैं, दिये के पतंग की भांति विवेकशून्य होकर आप ही अपने विनाश की ओर उद्यत हुआ ।
कप्तान का बेटा मेरा साथी था । उसे मैंने अब की बार अत्यन्त क्रुद्ध और गम्भीर देखा । स्वयं कप्तान अपने पुत्र से मेरा परिचय पाकर क्रोध से भयानक मूर्ति धारण कर बोला—-अभाग कहीं का, तेरे ही कारण मेरा सर्वनाश हुआ । जा, तू अभी घर लौट जा । माँ-बाप की असम्मति से यात्रा करके तू खुद मरेगा और दूसरों को भो मारेगा । कोई मुझको लाख रुपया भी देगा तो भी जिस जहाज़ पर तू रहेगा उस पर मैं पैर न रक्खूँगा । बच्चा!
समुद्रयात्रा का मज़ा तो तुम ने खूब ही चखा, अब घर जाकर अपने माँ बाप से जा मिलो ।
उन्होंने इस प्रकार भला-बुरा कह कर मुझे कितना ही समझाया-बुझाया । किन्तु मैं तो मरने ही पर कमर कसे था, इसलिए उनके उपदेश पर ध्यान न देकर वहाँ से निकल चला । जेब में खर्च के लिए कुछ रुपया आ ही गया था; अतएव स्थल-मार्ग से मैं लन्दन को रवाना हुआ । किन्तु रास्ते में दो ओर मेरे चित्त का खिंचाव होने लगा । एक बार मैं सोचता था कि "मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?
समुद्र-यात्रा में क्या लाभ है? घर लौट जाना ही अच्छा है ।" फिर अकारण लज्जा और चित्त का एक विचित्र झुकाव मुझे रोक लेता था । विशेष कर मनुष्यों की कम उम्र का स्वभाव बड़ा ही विलक्षण होता है । पाप करने में उसे कुछ लज्जा नहीं होती, बल्कि अनुताप द्वारा प्रायश्चित्त करके पाप के संशोधन करने ही में लज्जा मालूम होती है । जिस काम के करने से वे मूर्ख कहलायेंगे वह काम निःसंकोच होकरकरेंगे; किन्तु जिस काम के द्वारा उनके सद्ज्ञान का परिचय पाया जायगा वही करने में उनको शर्म लगती है ।
मैंने फिर समुद्रयात्रा की ही बात स्थिर की ।
मैं लन्दन में पहुँचते ही दूर देश को जाने वाले जहाज़ की खोज करने लगा । मैं जिसके जहाज़ पर जाता था वही मेरे कपड़े-लत्ते, भद्रवेष और जेब में रुपया देखकर मेरी ख़ातिर करता था । भाग्यवशात् मैं लन्दन जाकर भद्र लोगों के ही साथ परिचित हुआ । अन्यान्य युवकों की भाँति में कुसंगति में न पड़ा । आफ्रिका महादेश के अन्तर्गत गिनी देश को जाने वाले जहाज़ के अध्यक्ष से मेरी भेंट हुई । पहली बार वहाँ जाने से उन्हें लाभ हुआ था, इस कारण वे फिर वहीं जा रहे थे । वे मेरे देशाटन के शौक की बात सुनकर बोले--यदि तुम मेरे साथ चलना चाहो तो चल सकते हो । न तुम्हें कुछ भाड़ा देना होगा, और न खाने-पीने की कुछ फ़िक्र करनी पड़ेगी । तुम मेरे साथी बनकर चलना । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो कुछ तिजारती चीजें भी अपने साथ ले सकते हो। हो सकेगा तो उससे वहाँ तुम्हें दो पैसे का लाभ भी हो जाय ।
मैं तुरन्त उसके प्रस्ताव पर सम्मत हुआ और शीध्र ही उसके साथ मेरी घनिष्ठता हो गई । किन्तु यह सुयोग मेरे लिए कुछ अच्छा न था । इसे मेरा अभाग्य ही कहना ठीक होगा । जब समुद्र-भ्रमण की मेरी दुर्दम्य स्पृहा थी तब क्यों न ऐसा हो । समुद्र-भ्रमण की उत्कट अभिलाषा रहने पर तो मुझे किसी जहाज़ पर नाविक होकर जहाज़ चलाने आदि की अभिज्ञता पहले प्राप्त कर लेनी चाहिए थी । इससे भविष्य में मेरा विशेष उपकार भी हो सकता था । किन्तु मेरे अच्छे कपड़े लत्ते और भद्रवेष मेरे नाविक होने में विघ्न-स्वरूप हो रहा था । मैं जहाँ जाता था वहीं सब लोग शिष्ट जान कर मेरा आदर करते थे ।
कप्तान के उपदेशानुसार मैं कई रुपयों के अच्छे अच्छे खिलौने और अन्याय चटकीली भड़कीली कम दाम की चीजें लेकर गिनी शहर के गया । वहाँ अच्छा मुनाफ़ा हुआ । वहाँ से अन्दाज़न पौने तीन सेर सोने की गर्दा लाकर लन्दन में बेंच कर मैंने कोई साढ़े चार हज़ार रुपये कमाये । यही सफलता मेरे वाणिज्य और विदेश-भ्रमण के प्रलोभन का विशेष कारण हुई ।
मेरे जीवन में यही एकमात्र सामुद्रिक यात्रा कितने ही अंशों में निर्विघ्न हुई थी । किन्तु दुर्भाग्य तो मेरे साथ ही था । मैं आफ्रिका के दुःसह ग्रीष्म ताप से यद्यपि अस्वस्थ हो गया था तथापि यह यात्रा मेरे लिए लाभमूलक ही रही । धन कमाने के अतिरिक्त मैंने नौका-संचालन के विषय में कितने ही तत्व भी स्थूलरूप से सीख लिये थे । यह सब मेरे मित्र कप्तान की दया का ही फल था । मुझ को कुछ सिखलाते समय वे बहुत प्रसन्न होते थे , और मैं भी सीखते समय विशेष आनन्द पाता था । सारांश यह कि इस दफ़े मैं नाविक और वणिक दोनों हो कर लौटा ।
मैं गिनी देश का एक व्यवसायी हो गया, किन्तु मेरे दुर्भाग्यदोष से मेरे कप्तान मित्र की शीघ्र ही मृत्यु हो गई । तब उस जहाज़ का मेट कप्तान हुआ । मैं उसके साथ यत्किंचित मूल धन लेकर गिनी को रवाना हुआ । और रुपया अपने मित्र की स्त्री के पास बतौर धरोहर के रख गया । इस बार मैं अत्यन्त अशुभ मुहूर्त में रवाना हुआ था । लगातार आपदाएँ मेरा पीछा करने लगीं ।
मैंने जैसी आशङ्का थी वैसा कोई क्रूर व्यवहार वहाँ जाने पर देखने में न आया । डाकुओं के सर्दार ने हमारे साथी अन्यान्य बन्दियों को राज-दरबार में दास बनाकर भेज दिया और मुझको अपने पास रख लिया । मैं युवा और उत्साही था, इसलिए उसने मुझको अपने काम के उपयुक्त समझ कर ही शायद अपने यहाँ रख लिया ।
मेरे इस अवस्था-परिवर्तन में--वणिक् से एकदम दास होकर रहने में--मेरा हृदय अत्यन्त व्यथित होने लगा । उस समय मुझे फिर पिता का उपदेश और दुर्भाग्य की बात स्मरण होने लगी । किन्तु मैं तब भी न समझ सका कि मेरे संकट का अभी अन्त नहीं हुआ है, अनेक संकट अब भी भोगने को पड़े हैं ।
मेरे नये मालिक मुझको अपने घर ले गये । तब मेरे मन में कुछ कुछ यह नई आशा होने लगी कि वे जब जब समुद्र की यात्रा करेंगे तब तब मुझको ज़रूर साथ ले जायँगे । और, मेरे भाग्य से वे कभी न कभो स्पेनिश या पोर्चुगीज़ों के सरकारी लड़ाकू जहाज़ से आक्रान्त होकर बन्दी होंगे तब मुझे फिर स्वाधीनता मिलेगी ।
किन्तु मेरी यह आशा शीघ्र ही जाती रही । जब वह जहाज़ पर जाता था तब मुझे अपने गृहसम्बन्धी काम सँभालने के लिए घर ही पर छोड़ जाता था और जब घर लौट आता था तब मुझको जहाज़ की निगरानी के लिए जहाज़ पर सोने की आज्ञा देता था ।
यहाँ रह कर भागने की चिन्ता के सिवा मेरे मन में और कोई चिन्ता न थी । चिन्ता करके भी मैं भागने का कोई उपाय स्थिर न कर सकता था । कितने ही उपाय सोचता था, किन्तु किसी में जी न भरता था, एक भी उपाय युक्तियुक्त न जान पड़ता था । वहाँ मेरे मेल का कोई ऐसा आदमी भी न था जिसके साथ कुछ सलाह करता । दो वर्ष प्रायः योंही बीत गये । भागने की आशा भी क्रमशः क्षीण होने लगी । किन्तु दो साल के बाद एक अनुकूल घटना के सुयेाग से भागने की पुरानी चिन्ता फिर मेरे मन में उत्पन्न हुई । मेरे मालिक द्रव्य के अभाव से उस बार अधिक समय तक घर पर रह गये । उन दिन, आकाश साफ रहने पर, प्रति सताह में दो तीन दिन जहाज़ की उपसहायक छोटी डोंगियों पर चढ़कर वे मछली पकड़ने जाते थे । वे मुझको और मारइस्को नामक एक नवयुवक को पतवार चलाने के लिए साथ ले जाते थे । मैं नाव खेकर उन्हें खूब प्रसन्न कर देता था । दूसरे, मैं मछली पकड़ने में भी पूरा उस्ताद था । इसलिए वे कभी कभी अपने आदमी मुर और मारइस्को को मेरे साथ देकर मुझी को मछली पकड़ने के लिए भेज देते थे ।
एक दिन बहुत सवेरे जब हम लोग मछली पकड़ने चले तब ऐसा गाढ़ा कुहरा पड़ा कि किनारे से आध मील दूर जाते जाते किनारा अदृश्य हो गया । हम लोग किस तरफ़ कहाँ जा रहे हैं, यह कुछ न समझ पड़ा । सारे दिन और सारी रात हम लोग बराबर नाव खेते रहे । जब प्रभात हुआ तब देखा कि हम लोग किनारे की ओर न जाकर किनारे से दो तीन मील दूर समुद्र की ही ओर चले गये हैं । निदान हम लोग बहुत परिश्रम और संकटों को झेलते हुए राम राम करके किनारे पर पहुँचे । किन्तु कठिन परिश्रम और दिन-रात के उपवास से हम लोग राक्षस की भाँति भूख से व्याकुल हो गये थे ।
हमारे स्वामी ने इस यात्रा में शिक्षा पाकर भविष्य में विशेष रूप से सावधान होने का संकल्प किया । उन्होंने प्रतिज्ञा की कि अब कभी दिग्दर्शक कंपास और भोजन की सामग्री साथ लिये बिना मछली पकड़ने न जायेंगे । वे हम लोगों के गिनी जानेवाले जहाज़ की एक लम्बी सी डोंगी पकड़ लाये थे । उन्होंने उस डोंगी के आगे पीछे मल्लाह के खेने की जगह छोड़ कर उसके बीच में एक छोटा सा घर बनाने के लिए अपने मिस्त्री के हुक्म दिया । उनका मिस्त्री भी एक बन्दी अँगरेज़ युवक था । उसने मालिक की आज्ञा पाते ही एक कमरा और उसके भीतर खाने पीने की वस्तुएँ तथा कपड़ा आदि रखने के लिए आलमारी इत्यादि बना कर एक अच्छा कमरा तैयार कर दिया ।
हम लोग अक्सर उसी डोंगी को लेकर मछली पकड़ने जाते थे । मछली पकड़ने में मैं सिद्धहस्त था, इसलिए कभी ऐसा न होता कि मेरे स्वामी मुझको अपने साथ न ले जायें ।
एक दिन निश्चय हुआ कि उस देश के दो तीन प्रतिष्ठित व्यक्ति मूर के साथ मछली का शिकार खेलने जायेंगे । इस कारण पूर्वरात्रि में ही खाने-पीने की यथेष्ट सामग्री डोंगी में भरी गई । वे लोग मछलियों और चिड़ियों का शिकार करने वाले थे, इसलिए उन्होंने मुझको कुछ गोली-बारूद और बन्दूक भी साथ में ले जाने की आज्ञा दी थी ।
दूसरे दिन बड़े तड़के मैंने, स्वामी की आज्ञा के अनुसार, सभी उपयुक्त वस्तुएँ ले जा कर कमरे में रख दीं । नाव को अच्छी तरह धो-धुला कर साफ करके मालिक और उनके साथिओं के आने की मैं प्रतीक्षा करने लगा । कुछ देर के बाद मालिक ने आ कर मुझसे कहा-“क्रूसो, हमारे आगस्तुक व्यक्तियों का आज शिकार के लिए आना न हुआ । वे किसी आवश्यक कार्यवश रुक गये । वे लोग आज कल रात को हमारे ही घर भोजन करेंगे, इसलिए हम भी आज मछली के शिकार में न जा सकेंगे । तुम्हीं लोग जाओ, जो कुछ थोड़ी घनी मिल जाय, लेकर शीघ्र घर लौट आना ।" वे अपने विश्वासपात्र मूर और इकजूरी नामक एक लड़के को मेरे साथ जाने की आज्ञा दे कर चले गये ।
उस समय भाग निकलने की धुन फिर मेरे हृदय में समाई ।
एक बहुत बड़ी डोगी मेरे अधीन हुई । उसे छोटा मोटा जहाज़ ही कहना चाहिए । मेरे लिए यह कुछ सामान्य सुयोग न था । जब मेरे मालिक चले गये तब मैं मछली पकड़ने का बहाना करके भागने का उद्योग करने लगा ।
एक बहुत बड़ी डोगी मेरे अधीन हुई । उसे छोटा मोटा जहाज़ ही कहना चाहिए । मेरे लिए यह कुछ सामान्य सुयोग न था । जब मेरे मालिक चले गये तब मैं मछली पकड़ने का बहाना करके भागने का उद्योग करने लगा । किन्तु भाग कर किस ओर कहाँ जाऊँगा इसका कुछ ठीक न था; केवल वहाँ से किसी तरह भाग निकलना ही मेरा उद्देश्य था ।
इस प्रकार भागने का सब सामान ठीक करके हम लोग रवाना हुए । बन्दर के सामने जो किला था, उसके पहरेदार हमारे परिचित थे । इसलिए उन लोगों ने मुझ पर विशेष लक्ष्य न किया । हम लोग बन्दर से डेढ़ दो मील पर जा कर, नाव का पाल गिरा कर, मछली पकड़ने लगे । उस समय हवा मेरी इच्छा के विरुद्ध बह रही थी । उत्तरीय वायु बहने से मैं स्पेन के उपकूल या केडिज उपसागर में जा पहुँचता । किन्तु हवा जैसी चाहे बहे, मैं इस कुत्सित स्थान को त्याग कर ज़रूर जाऊँगा—यह मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया था । पीछे जो भाग्य में बदा होगा, होगा । भविष्य की चिन्ता भविष्य में की जायगी, अभी जिस तरह हो यहाँ से रफूचक्कर होना ही ठीक है ।
इकजूरी लड़के को डुबा कर मैं मूर का साथ ले लेता तो मुझे बहुत सुभीता होता; किन्तु उस पर विश्वास न था । मूर के चले जाने पर मैं उस छोकरे की ओर घूम कर बोला–“क्यों रे लड़के!
तू मेरा विश्वासपात्र होकर रहेगा न? नहीं तो तुझे भी समुद्र में डाल दूँगा ।" उसने मेरे मुँह की ओर ताक कर ऐसे सरलभाव से हँस कर शपथ की कि मैं उस पर अविश्वांस न कर सका ।
मूर जब तक तैरता हुआ दिखाई दिया था तब तक मैंने नाव की माँगी को समुद्र की ही ओ घुमा रक्खा था, मानो मैं जिब्राल्टर मुहाने की ही ओर जा रहा हूँ । जिसके
हृदय में किञ्चित् भी बुद्धि का लेश होता वह इसी तरह सोचता, क्योंकि कौन ऐसा होगा जो अपनी खुशी से असभ्य देश में रह कर नरशत्रु काफ़िर या हिंस्त्र जन्तु के मुँह में पड़ने की इच्छा करेगा?
आखिर हमने उन जन्तुओं में से एक को नाव की ओर तैर कर आते देखा । उसकी गुर्राहट और श्वास निश्वास के प्रक्षेप से जान पड़ा कि वह बहुत ही बड़ा हिंस्त्रजन्तु होगा । इकजूरी ने कहा-“वह सिंह है ।" मैं सिंह के सम्बन्ध में जो कुछ जानता था उससे मैंने भी वही निश्चय किया । बिचारा इकजूरी भय से मृतप्राय होकर, लंगर उठाकर नाव खोल देने के लिए, मुझ से अनुरोध करने लगा । मैंने कहा "नहीं, लंगर उठाने की कोई ज़रूरत नहीं, यदि ज़रूरत होगी तो लंगर की रस्सी को बढ़ा दूँगा । इससे नाव इतनी दूर चली जायगी कि फिर कोई जानवर पास न जा सकेगा ।" इतने में देखा कि वह पशु नाव से करीब दो लग्गी के फासले पर आ गया । मैंने अचम्भे में आकर झट कमरे के भीतर बन्दूक लाकर उस पर गोली चला दी । बन्दूक की आवाज़ सुनते ही वह तुरन्त तैरता हुआ किनारे की ओर लोट चला । बन्दूक की आवाज़ होते ही समुद्र के तट पर और ऊपर स्थल भाग में ऐसा भयानक चीत्कार, हुंकार और कोलाहल होने लगा जिससे स्पष्ट मालूम हुआ कि उन जन्तुओं ने कभी बन्दूक की आवाज़ न सुनी थी । उनका भीषण नाद सुनकर मेरे मन में बड़ी चिन्ता हुई । अब कैसे किनारे उतरूँगा?
बाघ, सिंह आदि हिंस्त्र पशु या तत्तुल्य असभ्य मनुष्य इन दोनों में जिस किसी के पंजे में पड़ेंगे, फल हम लोगों के लिए एक सा ही होगा ।
जो हो, हम लोगों को पानी के लिए स्थल पर कहीं न कहीं उतरना ही होगा । क्योंकि हमारे पास कण्ठ भिगोने को भी थोड़ा सा जल न बच रहा था । इकजूरी ने कहा-—यदि तुम मुझको किनारे उतार दो तो मैं पीने का पानी खोज कर ला सकता हूँ । मैंने कहा--तुम क्यों जाओगे?
क्या मैं जाने लायक़ नहीं हूँ?
इकजूरी–“नहीं, नहीं, तुम मत जाओ; यदि कोई हिंस्त्र जंगली जानवर आवेगा तो मुझी को खायगा, तुम तो भाग कर प्राण बचा सकोगे ।" उसने इस बात को ऐसे कोमल स्वर में कहा कि मैं मुग्ध होगया । मैंने कहा-- "अच्छा, तो हम तुम दोनों साथ साथ चलेंगे । यदि हिंस्त्र जन्तु हम लोगों को खाने दौड़ेगा तो उसे मार डालेंगे ।" निदान हम लोग जहाँ कत संभव था, नाव को किनारे की .
ओर ले गये और दो घड़े तथा बन्दूक लेकर कुछ दूर तक पानी में उतर कर सूखी जमीन पर आये ।
नाव छोड़ कर मैं बहुत दूर तक जाने का साहस न कर सका । क्या जानें, जगली लोग यदि जलपथ से आकर हमारी नाव को जब्त कर लें । इकजूरी करीब एक मील पर एक ढालू जगह देख कर उसी ओर गया । थोड़ी ही देर बाद देखा, वह दौड़ा हुआ आ रहा है । मैंने समझा, शायद किसी दुष्ट नरघाती मनुष्य ने उसका पीछा किया है, या किसी हिंस्र को देखकर वह डर से भागा आ रहा है । मैं उसकी ओर दौड़ कर गया । उसके समीप जाकर मैंने देखा, वह खरगोश के मानिन्द एक जानवर को मार कर पीठ पर लटकाये लिये आ रहा है, यह देख कर मैं बहुत खुश हुआ । मैंने उसका मांस चख कर देखा, अच्छा, सुस्वादु था । विशेष आनन्द मुझे इस बात से हुआ कि इकजूरी को मीठा पानी मिल गया और किसी जंगली आदमी ने उस पर आक्रमण नहीं किया । इससे वह भी बहुत प्रसन्न था ।
पानी के लिए हम लोगों को विशेष कष्ट न उठाना पड़ा । क्योंकि नदी का जल, भाटे के समय, मुहाने से कुछ ही दूर पर बहुत बढ़िया सुस्वादु था, ज़रा भी खारी न था । हम वहीं से अपनी कलसी भर लाये और खरगोश का मांस पका कर हम ने खाया-पिया । उस देश में कहीं आदमी का नाम निशान तक न देख कर हम फिर बहाँ से चलने को प्रस्तुत हुए ।
इसके पूर्व एक बार हम इस देश में वाणिज्य करने आये थे । हम अटकल से इस बात का अनुभव कर रहे थे कि यहाँ से कनेरी और केपवार्ड द्वीप-समूह बहुत दूर न होगा । हमारे मन में इस बात की आशा होने लगी कि अँगरेज़ लोग जहाँ तिजारत करते हैं वहाँ पहुँचने से, संभव है, उन लोगों का कोई जहाज़ देख पड़े और वे लोग हमारा उद्धार करें, यह प्रदेश बिलकुल जनशून्य था । मूर जाति के भय से हबशी लोग इस देश को छोड़ कर दक्खिन ओर चले गये हैं । इस देश को ऊसर और हिंस्त्र जन्तुओं से भरा जान कर मूर लोग भी इस पर अपना अधिकार नहीं जमाते । इसलिए यह देश मनुष्यों से बिलकुल खाली पड़ा था ।
हम लोग यहाँ से बिदा होकर पानी लेने के लिए कई बार किनारे की सूखी भूमि में उतरे थे । एक दिन सवेरे एक जगह नाव लगा कर देखा, एक बहुत बड़ा सिंह एक पहाड़ की गुफा में पड़ा सो रहा है । हमारे साथ तीन बन्दूक़ें थीं । हमने तीनों में अच्छी तरह गोली बारूद भर दी । तदनन्तर सिंह के मस्तक को लक्ष्य करके गोली चलाई । सिंह अगले पाँघ का पंजा मुंह पर रक्खे सो रहा था । इससे गोली उसके माथे में नहीं पाँव में लगी । सिंह गरज कर जाग उठा और दौड़ कर ज्यों ही चलना चाहा त्यों ही लड़खड़ा कर गिर पड़ा । उसके घुटने की हड्डी टूट गई थी । वह तीन पाँवों के बल से फिर सँभल कर उठा । भयंकर गर्जन कर के उसने भागना चाहा । हमने दूसरी बन्दूक़ उठा कर उसके सिर को लक्ष्य कर फिर गोली चलाई । गोली की चोट खाते ही वह आर्तनाद कर के गिर पड़ा । और चटपटाने लगा । यह देखकर मैं खुश हुआ । इकजूरी साहस कर के, हाथ में बन्दूक़ लेकर, नाव से उतर गया । उसने सिंह के पास जाकर उसके माथे पर बन्दूक की नली रखकर गोली दाग दी । सिंह मर कर स्थिर हो गया ।
यह एक भारी शिकार हाथ लगा, इस में सन्देह नहीं । किन्तु यह खाद्य न था । निष्प्रयोजन तीन आवाजों की गोली-बारूद खर्च करने से हमारा मन बहुत उदास हो गया । हम लोगों ने दिन भर परिश्रम करके सिंह का चमड़ा उतार लिया और उसे नाव की छपरी पर सूखने को फैला दिया । वह दो दिन की धूप लगने से अच्छी तरह सूख गया । फिर हम उस पर सोने लगे ।
इसके अनन्तर लगातार दस बारह दिन तक हम दक्षिण दिशा की ओर चले; पानी की आवश्यकता न होने पर हम किनारे की भूमि पर न उतरते थे । हम लोगों की खाद्य सामग्री समाप्त हो चली, इसलिए हम बहुत थोड़ा थोड़ा खाने लगे ।
हम इस ताक में थे कि गैम्बिया या सेनिगल नदी के निकट जा पहुँचेंगे तो वहाँ गिनी, और ब्रेज़िल प्रभृति देश का वाणिज्य व्यवसायी कोई न कोई यूरोपीय जहाज़ मिल ही जायगा । यदि जहाज़ न मिलेगा तो हबशियों के हाथ में पड़कर मर मिटेंगे ।
हमारे पास अन्न, फल-मूल और जल इत्यादि सभी वस्तुएँ खाने पीने की जुट गईं । हमने अपने हबशी मित्रों से बिंदाई लेकर प्रस्थान किया । ग्यारह दिन बराबर अग्रसर होने के बाद सामने एक टापू दिखाई दिया । वह टापू जल के बीच नाक की तरह बाहर निकल आया था । उसे घूम कर बाहर निकल आने पर आगे की ओर समुद्र में और भी टापू देख पड़े । तब हमने समझा कि कि हम वार्ड अन्तरीप और वार्ड द्वीप के मध्य में आ गये हैं । तो भी वे दोनों स्थान वहाँ से बहुत दूर थे । हमको किस तरफ़ जाना चाहिए, इसका हम निर्णय न कर सकते थे । यह आशंका भी हो रही थी कि हवा तेज़ हो जायगी तो दो स्थानों में कहीं भी न पहुँच सकेंगे ।
इस तरह चिन्ता से व्याकुल होकर हम कमरे के भीतर जा बैठे । इकजूरी नाव खे रहा था । वह एकाएक ज़ोर से चिल्ला उठा –‘महाशय, महाशय, एक पालवाला जहाज!" उसके पुराने मालिक का कोई जहाज हम लेागों पर धावा करने आ रहा है, यह समझ कर वह अत्यन्त डर गया । किन्तु हमको डर न लगा, क्योंकि हम जानते थे कि उन लोगों की सीमा से अब हम बाहर निकल आये हैं । हम फुरती से कमरे के बाहर आये और देखते ही समझ गये कि वह पोर्तुगीजों का जहाज है । हमने अनुमान किया कि वह हबशियों को लाने के लिए गिनी-उपकूल में जा रहा है । किन्तु कुछ ही देर में हमारा यह अनुमान गलत निकला । जहाज़ किनारे की तरफ न आकर समुद्र की ही ओर जाने लगा । तब हमने उन लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की इच्छा से समुद्र की ओर नाव को छोड़ दिया ।
जहाँ तक संभव था, पाल तान देने पर भी हम ने देखा कि उनकी दृष्टि का आकर्षण संकेत द्वारा करने के पहले ही वे लोग बहुत दूर चले जायेंगे । हम हताश हो रहे थे । इसी समय देखा कि वे लोग पाल गिरा कर हमारे लिए अपेक्षा कर रहे हैं । वे कदाचित् दूर-वीक्षण यन्त्र लगा कर हमें देख सकें, इस आशा से उत्साहित हो कर हम झंडी उड़ाने लगे । बन्दूक की आवाज़ कर के हमने अपनी विपत्ति की सूचना दी । यह देख कर वे लोग दया कर के जहाज़ को हमारी ओर घुमा कर लाने लगे । कोई एक पहर में हम उन लोगों के पास पहुँच गये ।
उन लोगों ने क्रमशः पोर्तुगीज़, स्पेनिश और फ्राँस की भाषा में हम से परिचय पूछा, पर हम उनकी एक भी भाषा न समझ सके । उस जहाज़ पर एक स्काच नाविक था । उसने जब अँगरेज़ी में हमारा परिचय पूछा तब हमने उससे कहा--हम अँगरेज़ हैं, शैली से मूरों का दासत्व त्याग कर भाग निकले हैं । यह सुन कर उन लोगों ने हमें जहाज़ पर आने की आज्ञा दी और बड़ी दयालुता के साथ हम लोगों को तथा हमारी चीज़-वस्तुओं को अपने जहाज़ पर रख लिया ।
उस दुःसह दुर्दशा और निराशा से उद्धार होने पर हमें जो आनन्द हुआ, उसका वर्णन नहीं हो सकता । इस उपकार की खुशी में हमारे पास जो कुछ था सब हमने जहाज़ के कप्तान को उपहार के तौर पर दे दिया । किन्तु उन्होंने उदारता का परिचय देकर कहा--महाशय, मैं आप का उद्धार करने के बदले आपसे कुछ न लूँग । कौन जानता है, कभी मेरी भी अवस्था आप ही की सी हो जाय । यही सोच कर मैंने आपका उद्धार किया है । हम लोग ब्रेज़िल जा रहे हैं । आप भी अपने देश से बहुत दूर जा पहुँचेगे । आपके पास से यदि मैं आपका सर्वस्व ले लूँ तो आप वहाँ जाकर क्या खाकर प्राण धारण करेंगे । तब, जिस प्राण की आज मैंने रक्षा की है उसी के विनाश का क्या मैं फिर कारण बनूँगा?
मैं आपको यों ही ब्रेज़िल पहुँचा दूँगा और आपकी जितनी चीजें हैं, सब आपको दे दूँगा । ये सब वस्तुएँ आपके भरण-पोषण और घर लौट जाने के समय राह-ख़र्च का काम देंगी ।" यह कह कर उन्होंने नाविकों को रोक दिया कि वे हमारी किसी चीज़ को न छुएँ और हमारी सब चीजें अपने ज़िम्मे रख कर मुझे एक चिट्ठी लिख दिया । उस चिट्टे में मिट्टी के घड़ों तक का उल्लेख था । उसका मतलब यही था कि ब्रेज़िल में जाकर हम उस चिट्ठी के ज़रिये अपनी सारी चीजें सहेज लें ।
हमारी नाव बहुत बढ़िया थी। कप्तान ने उसे मोल लेने की इच्छा से दाम पूछा । हमने कहा--“आप के साथ मोल तोल क्या?
आपकी दृष्टि में जो मूल्य जचे वही दे दीजिये ।" इस पर उन्होंने हमको साढ़े छः सौ रुपया देना चाहा और कहा, ब्रेज़िल जाने पर यदि इसका दाम कोई अधिक लगावेगा तो हम भी अधिक देंगे । उन्होंने पाँच सौ रुपया देकर इकजूरी को ख़रीदना चाहा; किन्तु जिसने मुझे स्वाधीनता प्राप्ति में सहायता दी थी, उसकी स्वाधीनता बेचने का विचार मेरा न हुआ । इकजूरी के कप्तान के पास रहना स्वीकार करने पर मैंने उसे योंही दे दिया । कप्तान ने कहा--इकजूरी यदि क्रिस्तान हो जाय तो उसे हम दस वर्ष बाद दासत्व से मुक्त कर देंगे ।
हम लोग बाईस दिन के बाद निर्विघ्न ब्रेज़िल के शान्त उपसागर में पहुँचे । बुरी दशा से तो उद्धार हुआ, किन्तु अब क्या करना होगा?
यही एक भारी चिन्ता थी । कप्तान के सद् व्यवहार का सम्यक् वर्णन करने में हम अक्षम हैं । उन्होंने हमसे कुछ भी जहाज़ का भाड़ा न लिया । इसके अलावा हमने अपने पास की जिन चीज़ों को बेचना चाहा वे सब उन्होंने मोल ले लीं । बाघ और सिंह का चमड़ा, दो बन्दूकें और मोम वगैरह बेंचने पर हमें कोई दो हज़ार रुपया मिले । यही पूँजी लेकर हम ब्रेजिल के किनारे उतरे ।
ब्रेज़िल में आने के कुछ ही दिन बाद कप्तान ने एक भलेमानस के यहाँ मेरी सिफ़ारिश कर दी । उनके ऊख की खेती और चीनी की कारखाना था । कुछ दिन उनके यहाँ रह कर मैंने ऊख की खेती और चीनी बनाने की रीति सीखी । देखा, किसान लोग खेती की बदौलत सहज ही और शीघ्र धनवान् हो जाते हैं । इससे मेरी इच्छा भी खेती करने की हुई । मेरे पास जो कुछ पूँजी थी उसमें जितनी जमीन मिली, मैंने ले ली; और इँगलैन्ड में कप्तान को विधवा स्त्री के पास मेरा जो रुपया जमा था वह मँगा लेने का विचार किया ।
मेरे खेत से सटा हुआ जिसका खेत था वह लिसबन शहर का एक पोर्तुगीज़ था । उसके माँ-बाप अँगरेज थे । नाम उसका वेल्स था । मेरी ही ऐसी उसकी भी कई बार दुर्दशा हो चुकी थी । हम दोनों, दो वर्ष तक, केवल पेट भरने को अन्न संग्रह करने के लिए ही खेती करते रहे, लाभ के लिए नहीं!
हम लोग क्रम क्रम से खेती बढ़ाने लगे । तीसरे साल हम लोगों ने तम्बाकू की खेती की और उसके अग्रिम वर्ष में ऊख बोने की तैयारी करने लगे । किन्तु हम दोनों को खेत आबाद करने के लिए मज़दूरो की आवश्यकता होने लगी । तब मैंने समझा कि इकजूरी को छोड़ देना अच्छा नहीं हुआ । किन्तु बीती हुई बात के लिए सोच करने से फल ही क्या?
मैंने जब कभी अपनी भूल समझी तब बहुत विलम्ब से; दूसरी बात यह कि तब भूल-संशोधन करने का कोई उपाय भी न रहता था ।
मेरे पिता ने जिस पेशे का अवलम्बन करके घर पर रहने की बात कही थी, अब वही पेशा करने को मैं बाध्य हुआ । उस समय मैंने पिताजी का आश्रय और सदुपदेश त्याग दिया था । इस काम को यदि तभी स्वीकार कर लेता तो अपने देश से पाँच हज़ार मील पर, अपरिचित और असभ्य लोगों के बीच अकेले रह कर, इस प्रकार निःशङ्क भाव से मुसीबतों का सामना न करना पड़ता । यहाँ मेरा कोई संगी साथी न था । मानों मैं किसी स्वजनशून्य देश में निर्वासित हुआ था । इस अवस्था में रहना मुझे विशेष कष्टकर जँचता था । जो हो, इस प्रकार अकेले रहने का अभ्यास हो जाने के पीछे इससे मुझे बहुत लाभ हुआ ।
मैं इँगलैन्ड से अपना संचित रुपया मँगाने की बात सोच रहा था । मेरे उद्धारकर्ता कप्तान साहब ने उसे ला देना स्वीकार कर लिया । मैंने उनकी मारफ़त अपने पुराने मित्र की स्त्री को अपनी अवस्था के सविस्तर समाचार सहित एक पत्र लिख भेजा ।
लिसबन जाकर कप्तान ने एक व्यापारी अँगरेज़ के मारफ़त मेरी चिट्ठी इँगलैन्ड भेज दी । उस समय चिट्ठी बाँटने के लिए हरेक देश में डाक का बन्दोबस्त न था । मेरी मित्र-भार्या ने चिट्ठी पाकर रुपया तो भेज़ ही दिया इसके सिवा उसने अपनी ओर से मेरे उद्धारकारी कतान को एक सुन्दर उपहार भी भेज दिया । कप्तान मेरे रुपये से मेरी खेती बारी के उपयुक्त अनेक वस्तु--यथा हल, फाल, कुदाल, खुरपी, इत्यादि खरीद कर अपने साथ लेते आये । मैंने ये चीजें लाने के लिए उनसे न कहा था । वे अपनी दूरदर्शिनी बुद्धि की प्रेरणा से ही लाये थे । उन चीज़ो से भविष्य में मेरा यथेष्ट उपकार और सुविधायें हुई थीं । अपने पास से रुपया देकरछः वर्ष के करार परवे मेरे लिए एक नैकर मोल लेकर साथ लाये थे । इन अनेक अनुग्रहो के बदले, उनसे यह कह कर कि यह मेरे खेत की तम्बाकू है, मैंने कुछ तम्बाकू ले लेने के लिए उन्हें राजी किया ।
उस समय मेरी दशा बहुत उत्तम हो चली थी, और खेती का कारबार भी बढ़ गया था । मैंने कप्तान के दिये नौकर के अलावा दो नौकर और ख़रीदे-—एक हबशी और एक फिरंगी ।
ब्रेज़िल में मेरे चार वर्ष गुजर गये । खेती में मुझे खासा लाभ हुआ । यदि मैं कुछ दिन और सन्तोषपूर्वक खेती का व्यवसाय करता रहता तो मेरे पिता ने मेरे लिए जैसा कुछ गृहस्थी का सुख सोच रक्खा था वैसा ही सुख पाकर मैं एक सम्पन्न गृहस्थ हो जाता । किन्तु चुपचाप बैठकर घर का सुस्वादु अन्न खाना मेरी तकदीर में लिखा ही न था । मेरे सुख के पीछे पीछे सनीचर लगा फिरता था । मैंने आप ही अपना सर्वनाश करने को कमर बाँधी थी । यहाँ भी उसका व्यतिक्रम न हुआ ।
मैंने यहाँ की सब प्रकार की भाषायें सीखी थीं और पड़ोस के कितने ही किसानों के साथ तथा सन्त सालवाडोर बन्दर के व्यापारियों के साथ मेरी जान पहचान हो गई थी । मैं प्रसंगवश उन लोगों से गिनी उपकूल में हबशियों के साथ वाणिज्य व्यवहार करने के लाभ की बात कहा करता था । काँच के टुकड़े, आइना, छुरी, कैंची, खिलौना, माला आदि सामान्य वस्तुओं के बदले वहाँ स्वर्णरेणु, अनाज, हाथीदाँत आदि कीमती चीजें-—यहाँ तक कि हबशी नौकर तक मिलते हैं । हबशी नौकर लाने से हम लोगों के खेती के कामों में बहुत कुछ मदद मिल सकती है, यह भी मैं उन लोगों को समझा । देता था । वे लोग मेरी बातों को खूब जी लगाकर सुनते थे । "
एक दिन सवेरे मेरे परिचितों में से तीन व्यक्तियों ने आकर यह प्रस्ताव किया--आप दो बार गिनी-उपकूल में जा चुके हैं । अतएव नौकर लाने के लिए आपही को जाना होगा । इसके लिए जहाज़ और खर्च का प्रबन्ध हम लोग कर देंगे । नौकर ले आने पर, आपके परिश्रम के बदले हम लोग आपसे बिना कुछ लिए ही नौकर का बराबर हिस्सा आप को देंगे ।
यह प्रस्ताव मुझे बहुत अच्छा जान पड़ा । दूसरा कोई आदमी होता तो इस प्रस्ताव में सम्मत न होता; किन्तु में तो चिरकाल से अपने सुख पर आप ही पानी फेर रहा था । मैं इस प्रलोभन को न रोक सका । तुरन्त स्वीकृत कर कहा--“यदि तुम लोग मेरे परोक्ष में मेरी खेती-बारी का काम सँभाले रहो और यदि मैं मर जाऊँ तो मेरे कथनानुसार मेरी सम्पत्ति की व्यवस्था करना स्वीकार करो तो मैं जा सकता हूँ ।" उन लोगों ने मेरी शर्त पर राज़ी होकर एक स्वीकारपत्र लिख दिया । मैंने भी एक वसीयत-नामा (सम्पत्ति-विभागपत्र) लिखा । उसमें अपने उद्धारकर्ता कप्तान को ही मैंने अपना उत्तराधिकारी किया । मेरी मृत्यु के अनन्तर मेरी सारी सम्पत्ति का आधा अंश वे लेकर बाकी आधी सम्पत्ति का मूल्य इँगलेण्ड में मेरे पिता के पास पहुँचा दें।
मैंने अपनी सम्पत्ति-रक्षा के लिए जितनी सावधानी और भविष्य-चिन्ता की थी, उसकी आधी भी यदि मेरे निज के लिए स्वार्थ बुद्धि होती तो मैं उत्तरोतर बढ़ती हुई निरापद आर्थिक अवस्था को छोड़ कर समुद्रयात्रा के प्रस्ताव पर कभी सम्मत न होता । एक तो समुद्रयात्रा स्वभावतः विघ्नों से युक्त होती है, उस पर मेरे ऐसे हतभाग्यों का तो का तो कुछ कहना ही नहीं । विपत्ति पर विपत्ति को आशंंका बनी ही रहती थी । बुद्धि की अवहेला करके इच्छा के अधीन होजाना मेरा स्वभाव था । इच्छा मुझे ज्ञानान्ध बनाकर बलात् खींच ले चली ।
जहाज़ जाने के प्रस्तुत हुआ । सीपों के हार, आइना, छुरी , कैंची, कुल्हाड़ी, और खिलौना आदि कम कीमती चीजें जहाज़ पर लादी गईं । मैं १६५९ ईसवी की पहली सितम्बर के अशुभ मुहूर्त में जहाज़ पर सवार हुआ । आठ वर्ष पूर्व इसी तारीख को मैने, मूर्ख की तरह माँ-बाप के आदेश का तिरस्कार करके पहले पहल समुद्र यात्रा की थी ।
जहाज़ पर छः तोपें चौदह नाविक, एक कप्तान, उनका नौकर और मैं था । हम लोग जिस दिन जहाज़ पर चढ़े उसी दिन जहाज़ रवाना हुआ । समुद्र का जल स्थिर था, और वायु भी अनुकूल थी । हम लोग अफ्रीका जाने के विचार से उत्तर और चल पड़े । बारह दिन बाद, हम लोगों को ज्ञात होने के पहले ही, एकाएक भयंकर तूफान उठा । बारह दिन तक लगातार तूफ़ान बना रहा । हम लोगों ने कुछ आगा पीछा न सोच कर भाग्य के भरोसे जहाज़ को तूफ़ान के मुँह में छोड़ दिया । न छोड़ने तो करते ही क्या?
सिवा इसके दूसरा उपाय ही क्या था? इन बारह दिनों में मिनट मिनट पर यही जी में होता था कि इस बार समुद्र हम लोगों को सदा के लिए अपने पेट में रख लेगा । वास्तव में किसी नाविक को जीवन की आशा न थी ।
विपत्ति के ऊपर एक दुर्घटना और हुई । लू लग जाने से हमारा एक नाविक मर गया और एक दूसरे नाविक तथा कप्तान के नौकर को, जहाज़ के ऊपर से, समुद्र की तीक्ष्ण तरङ्ग बहा ले गई ।
बारह दिन के अनन्तर तूफ़ान कुछ कम हुआ । कप्तान ने और मैंने देखा कि हम लोग ब्रेज़िल के उत्तरी भाग अमेज़ान नदी को छोड़ कर एक बड़ी नदी के पास गायना-उपकूल में आ गये हैं । कप्तान ने मुझ से पूछा किस रास्ते से जाना अच्छा होगा । उस समय जहाज़ के भीतर कुछ कुछ पानीं आ रहा था । जहाज़ पूरे तोर से ढोला पड़ चुका था । कप्तान की इच्छा ब्रेज़िल लौट जाने की थी । मैंने उसमें बाधा डाली । अमेरिका के उपकूल का नक़्शा देख कर तय किया कि केरिवो द्वीप के सिवा समीप में कोई ऐसा स्थान नहीं जहाँ आश्रय लिया जाय । तब मैंने बारबौडस द्वीप की ओर जाने का निश्चय किया और अटकल लड़ाई कि पन्द्रह दिन और चलने से हम लोग किसी न किसी बृटिश द्वीप में जाकर अफ्रीका जा सकने योग्य साहाय्य पा सकेंगे । चाहे जो हो, यात्रा करके अब लौट जाना ठीक नहीं । मेरी बुद्धि क्यों मुझे आपत्तिविहीन स्थान में ले जाने को सम्मत होती?
मेरे भाग्य में तो अनेक दुःख का भोगना लिखा था । फिर तूफ़ान उठा और हम लोगों के जहाज़ को पच्छिम की ओर उड़ा ले चला । इस समय समुद्र से बच जाने पर भी हम लोगों को, किनारे उतर कर,नृशंस लोगों के हाथ से छुटकारा पाने की आशा न थी । हम लोगों की अक्ल कुछ काम न देती थी। स्थल भाग में उतरें तो राक्षस हम लोगों को खा ही डालेंगे । अब अपने देश की ओर भी लौट न सकेंगे ।
वैसी दशा में हम लोगों को एक यही सान्त्वना मिली कि जितने शीघ्र जहाज़ के टूटने की संभावना थी उतने शीघ्र वह टूटा नहीं और वायु का वेग भी कुछ कम हो गया ।
किन्तु जहाज़ के टुकड़े टुकड़े न होने और हवा का वेग घट जाने पर भी हम लोगों की विपत्ति कम न हुई । जहाज़ इतने ज़ोर से बालू में धंस गया था कि उसका उद्धार होना कठिन था । हम लोग ज्यों त्यों कर अपने अपने प्राण बचाने का उपाय सोचने लगे । जहाज़ के पीछे एक छोटी नाव बँधी थी किन्तु वह पहली ही झपेट में जहाज़ का धक्का लगने से टूट गई थी । फिर रस्सी से खुल कर वह समुद्र में बह चली । कौन जाने वह डूबी या बची?
इसलिए उससे तो हम लोग सन्तोष ही कर बैठे थे । हमारे जहाज़ के ऊपर एक और नाव थी, परन्तु उसको रक्षा-पूर्वक पानी में उतार लाना विषम समस्या थी । किन्तु वह समय सोच-विचार करने या तर्क वितर्क करने का न था, क्यों कि जहाज़ क्रमशः टूट फूट कर इधर उधर गिर रहा था । इस मुसीबत में जहाज़ का मेट अन्य मल्लाहों की सहायता से नाव को जहाज़ के ऊपर से धीरे धीरे पानी में उतार लाया । हम ग्यारह आदमी राम राम कर उस नाव पर चढ़े । उस उन्मत्त उत्तुंगतरंगवाले समुद्र के हाथ में आत्मसमर्पण कर भगवान के भरोसे नाव को बहा दिया । हवा कम पड़ जाने पर भी समुद्र की लहरें तट पर दूर तक उछल पड़ती थीं ।
इस समय हम लोगों की अवस्था अत्यन्त शोचनीय हो उठी । समुद्र का जल बढ़ कर जिस प्रकार ऊपर की ओर बढ़ता जा रहा था, उससे हम लोगों ने स्पष्ट ही समझ लिया कि नाव अब देर तक ठहरने की नहीं, अवश्य ही हम लोग डूब मरगे । हमारी नाव पर पाल न था, जो होता भी तो क्या कर सकते?
हम लोग मृत्यु को सामने रख किनारे की ओर नाव ले जाने का प्रयत्न करने लगे । बध्यभूमि में जाते समय मारे जाने वाले लोगों की तरह हम लेागों का जीवन भारा क्रान्त हो रहा था । हम लोगों ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि तट के समीप पहुँचते ही एक ही हिलकोरे में हमारी नाव चूर चूर हो जायगी, तो भी हम लोगों को अन्य गति न थी । हवा हम लोगों के किनारे की ओर ठेलती थी और हम लोग स्वयं भी, अपने को मृत्युमुख में डालने के लिए, किनारे ही की तरफ़ नाव को लिये जा रहे थे ।
वहाँ का तट कैसा था, वहाँ पहाड़ था या बालू का ढेर, यह हम लोग न जानते थे, तथापि कुछ आशा थी तो यही कि यदि किसी खाड़ी या नदी के मुहाने में पहुँच सकें तो शायद स्थिर जल मिल भी जाय, किन्तु वैसा कोई लक्षण देख न पड़ता था । हम लोग जितना ही तट के समीप जाने लगे उतना ही समुद्र की अपेक्षा तटस्थ भूमि भयंकर प्रतीत होने लगी ।
आख़िरी तरंग तो मुझे एक प्रकार से समाप्त ही कर चुकी थी । उसने मुझको लिये दिये ऐसे ज़ोर से एक पत्थर के ऊपर उठा कर पटक दिया कि ऐसा जान पड़ा मानो दम निकल गया हो । छाती में सख चोट लगने से मैं मूर्च्छित हो गया । यदि उसी समय फिर दूसरी लहर आती तो दम घुट कर वहीं मेरा काम तमाम हो जाता । तब मैंने खूब ज़ोर से अँकवार भर कर पत्थर को पकड़ा और सास बन्द कर के लेट रहा । किनारे से वह जगह बहुत ऊँची थी, इसलिए तरंग हलकी सी होकर वहाँ आई । में तरंग के विरुद्ध पत्थर पकड़े पड़ा रहा । तरंग हटते ही फिर मैंने एक दौड़ लगाई । इस के बाद फिर एक तरंग यद्यपि मेरे ऊपर हो कर गई तथापि वह मुझे अपनी ओर खींच न सकी । उस तरंग के चले जाने पर मैं एक ही दौड़ में एक दम ऊपर चढ़ आया । इतनी देर में जाकर तरंग से मेरा पिण्ड छूटा । मैं किनारे के पास के पहाड़ से हट कर घास पर जा बैठा । तरंग की सीमा से बाहर रक्षित स्थान में पहुँचने पर मुझे अत्यन्त आराम मिला ।
मैं स्थल में आकर, विपत्ति से उद्धार पा, अपनी जीवन-रक्षा के लिए ऊपर की ओर देख कर परमेश्वर को धन्यवाद देने लगा । कुछ ही देर पहले जिस जीवन की कुछ भी आशा न थी उसे मृत्यु के मुख से सुरक्षित देख, मन में जो असीम आनन्द और उल्लास हुआ उसका वर्णन नहीं हो सकता । उस समय इतना अधिक आनन्द हुआ कि उस आवेग से ही मर जाने की आशंका हुई । कारण यह कि एकाएक अत्यन्त हर्ष होने से भी, अति विषाद की ही भाँति, चित्त अचेतन हो जाता है ।
मैं समुद्रतट पर, मारे खुशी के अकड़ता हुआ, हाथ उठाये अनेक प्रकार से अंग-भंगी करता हुआ घूमने लग । उस समय मेरे मन में सिर्फ यही चिन्ता थी कि मेरे सभी साथी डूब मरे; एक मैं ही "समुद्र से जीता-जागता बच निकला, ईश्वर ने मृत्यु के मुख से मुझे बचा लिया । मैंने अपने साथियों में किसी को नहीं देखा और न किसी का कुछ पता पाया; सिर्फ
उन लोगों की तीन टोपियाँ और दो जोड़े जूते समुद्र के किनारे इधर उधर पड़े दिखाई दिये ।
समुद्र के गर्भ में स्थित बालुकामय भूभाग में अटके हुए जहाज़ की ओर मैंने ध्यान से देखा । किन्तु तब भी समुद्र में फेन से भरी हुई इतनी तरंगों पर तरंगें चल रही थी कि मैं अच्छी तरह जहाज़ को न देख सका । तब मैंने मन में कहा-—भगवन, इस दुस्तर समुद्र से मुझे किस तरह किनारे निकाल लाये?
इस अवस्था में यथासम्भव मन को सान्त्वना देकर मैं इधर उधर देखने लगा कि कहाँ कैसे स्थान में आ गया हूँ । मैं यह भी सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए । शीघ्र ही मेरे मन की सान्त्वना जाती रही । मैं एकाएक अधीर हो उठा । मैंने देखा; मैं बच कर भी भयंकर अवस्था में आ पड़ा हूँ मेरा तमाम बदन गीला था, पास में कोई दूसरा कपड़ा बदलने को न था, खाने-पीने की कोई चीज़ भी न थी और न वहाँ कोई ऐसा आदमी था जो मुझे कुछ आश्वासन देता । भूख-प्यास से या जंगली हिंस्त्र पशुओं के आक्रमण से सिवा मरने के जीने की आशा न थी । मेरे पास कई हथियार भी न था । मेरे पास कुल पूँजी बच रही थी एक छुरी, तम्बाकू पीने का एक नल और कुछ तम्बाकू । इन बातों को सोचते सोचते मैं पागल की तरह उस निर्जन स्थान में इधर उधर दौड़ने लगा ।
क्रमशः रात हुई । मैं चिन्तासागर में निमग्न हो कर सोचने लगा-- अब तमाम हिंस्त्रजन्तु चरने के लिए निकलेंगे । संभव है, वे मुझे देखते ही चबा डालें । इसके लिए क्या करें?
मेरी जितनी बुद्धि थी उससे यही निश्चय किया कि पेड़ पर चढ़कर
मैं किसी तरह रात बिताऊँगा । आज किसी कँटीले वृक्ष पर बैठ कर ही सारी रात काटूँगा और सोचूँगा कि दूसरे दिन किस तरह मृत्यु होगी । क्योंकि प्राण-रक्षा की कोई सम्भावना ही न देख पड़ती थी । जिधर देखता था उधर ही मृत्यु मुँह फैलाये खड़ी दिखाई देती थी । मैं प्यास से व्याकुल था । मारे प्यास के मेरा कण्ठ सूख रहा था । मीठा जल कहीं है या नहीं, यह देखने के लिए मैं समुद्रतट से स्थल भाग की ओर गया । एकआध मील जाने पर अच्छा पानी मिला । मैंने बड़े उल्लास से अंजलि भर कर पानी पिया । प्यास शान्त होने पर कुछ भूख मालूम होने लगी; पर साथ में था क्या जो खाता । था सिर्फ तम्बाकू का पत्ता । उसी को तोड़ कर थोड़ा सा मुँह में रक्खा । नींद से आँखें घूमने लगीं । मैं झट एक पेड़ पर चढ़ कर जा बैठा । रात में नींद आने पर कहीं गिर न पड़ूँ , इसका प्रबन्ध पहले ही कर लिया । पेड़ की एक डाल काट कर उसी का सहारा बना लिया । दिन भर का थका-मादा था, बैठने के साथ ही गाढ़ी नींद ने आकर धर दबाया । खूब चैन से सोकर जब मैं जागा तब बदन में अच्छी फुरती मालूम होने लगी । मानो फिर नस नस मे नया उत्साह भर गया ।
जब मैं सोकर उठा तब देखा कि सवेरा हो गया है, आकाश बिलकुल साफ़ है, हवा रुक गई है, समुद्र की तरंगें भी अब उस प्रकार नहीं उछलतीं । रात में ज्वार के समय हमारा बालू में फँसा हुआ जहाज़ बह कर किनारे की ओर जहाँ मैंने पहले पत्थर से टकरा कर चोट खाई थी वहाँ तक, चला आया है । वह जगह स्थल भाग से कोई एक मील पर थी । जहाज़ तब भी सीधा खड़ा था । यह देख कर मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ । मैंने वहाँ तक जाने का इस लिए विचार किया कि यदि जहाज़ पर कोई आवश्यक वस्तु मिल जायगी तो ले आऊँगा ।
मैंने पेड़ पर से उतर कर देखा कि मेरे दहनी ओर, अन्दाज़न दो मील पर, सूखी ज़मीन पर हमारी नाव पड़ी है । मैं उसी ओर जाने लगा । समीप जाकर देखा, मेरे और नाव के बीच में आध मील चौड़ी एक खाड़ी है जिसमें पानी भरा है । तब नाव तक जाने की आशा छोड़कर मैंने पैदल ही जहाज़ देखने के लिए जाने का विचार किया । इसलिए वहाँ से लौट आया ।
दोपहर के बाद समुद्र स्थिर हो गया । भाटे के कारण जल इतना कम हो गया कि मैं जहाज़ से पाव मील दूर तक सूखी ज़मीन पर होकर ही गया था । वहाँ पहुँचने पर फिर मेरे मन में नया दुःख हुआ । यह सोच कर मुझे अत्यन्त खेद हुआ कि हम लोगों ने जहाज़ को छोड़ कर नाव का सहारा क्यों लिया । हम लोग यदि जहाज़ ही पर रहते तो कोई भी डूब कर न मरता । मैं भी संगी-साथियों से बिछुड़ कर ऐसी दुर्दशा में न पड़ता, सब लोग बिना किसी विघ्न-बाधा के किनारे आ जाते । मारे सोच के मैं रो पड़ा । किन्तु उस समय रोना निष्फल जान कर मैं जहाज़ पर जाने की चेष्टा करने लगा । कोट-पतलून खोलकर मैंने धरती पर रख दिया फिर मैं पानी में घुस गया ।
मैं जहाज़ के निकट पहुँच गया, किन्तु उस पर चढू़ँगा किस तरह?
जहाज़ टीले पर आ जाने के कारण उसका कोना बहुत ऊँचा उठ गया था। ऐसा कुछ सहारे को भी न था जिसे पकड़ कर उस पर चढ़ता। मैंने जहाज़ के चारों तरफ़ दो बार घूम घाम कर देखा एक जगह ऊपर से एक रस्सी लटक रही थी। बड़े कष्ट से उसे पकड़ कर में जहाज़ पर सामने की ओर चढ़ गया। ऊपर जाकर देखा, जहाज़ के भीतरी पेंदे में खूब पानी भर गया है, बालू के ढेर में अटके रहने के कारण उसका पिछला हिस्सा ऊपर की ओर उठ गया है और आगे का हिस्सा नीचे की ओर झुक कर पानी में डूबने पर है। मैं जहाज़ पर चढ़ कर खोज ने लगा कि कौन कौन वस्तु सूखी है। सब से प्रथम मेरी दृष्टि खाद्य-सामग्री के भण्डार की ओर गई। देखा कि उसमें अभी तक जल नहीं पहुँचा है । खाने की सामग्री ज्यों की त्यों रक्खी है। मैं भूखा तो था ही, झट मुट्ठी भर बिस्कुट ले कर खाने लगा और खाते ही खाते अन्यान्य वस्तुओं की भी खेज करने लगा। वह समय मेरा नष्ट करने का न था। मैंने जहाज़ में बहुत सी ऐसी चीजें देखीं जो मेरे काम की थीं। किन्तु उन चीजों को ले जाने के लिए पहले एक नाव चाहिए। वह अभी कहाँ मिलेगी?
मैं चुपचाप बैठ कर सोचने लगा।
जो चीज़ मिलने की नहीं है उसके लिए माथे पर हाथ रक्खे मौन साध कर बैठ रहना वृथा है। नाव एक भी वहाँ
न थी, तब उसके लिए चिन्ता कैसी है किन्तु किसी वस्तु का अभाव ही नई वस्तु के आविष्कार का कारण होता है । मेरीमेरे बेड़े के पार होने की आशा के तीन कारण थे--एक तो समुद्र शान्त और स्थिर था; दूसर, ज्वार आने से जल क्रमशः किनारे की ओर बढ़ रहा था, तीसरे जो कुछ कुछ हवा बह रही थी वह किनारे की ओर जाने ही में सहायता दे रही थी । मैंने दो तीन टूटी पतवारें, खनती ( खनित्र ), कुल्हाड़ी, हथौड़ी आदि उपयोगी वस्तुओं का संग्रह कर साथ में रख लिया । फिर कपार ठोक कर मैं रवाना हुआ । एक मील तक तो रास्ता मज़े में कटा । केवल जिस जगह मैं पहले उतरा था उस जगह से कुछ दूर हटकर बेड़ा बह चला । उससे मैंने समझा कि ज्वार का प्रवाह कहीं से प्रवेश का मार्ग पाकर उसी ओर बढ़ा जा रहा है । शायद मैं किसी खाड़ी या नदी के मुहाने में जा पहुँचूँगा, और वहाँ मेरे उतरने की सुविधा होगी ।
आखिर मुहाने के पास एक सुभीते की जगह देख कर मैंने बड़े बड़े कष्ट और परिश्रम से बेड़े को वहाँ लेजाकर तटस्थ भूमि में भिड़ाने की चेष्टा की । किन्तु किनारे की भूमि इतनी ऊँची ढलुवाँ थी कि फिर मेरा बेड़ा किनारे से लग कर उलटने पर हो गया । तब मैं कुछ देर तक ज्वार के और अधिक होने की प्रतीक्षा से ठहर गया । ज्वार के बढ़ने से पानी कछार के ऊपर तक पहुँच गया, तब मैंने बेड़े को किनारे लगा कर अपनी सब चीज़ों को उतार उतार कर सूखी ज़मीन पर ला रक्खा ।
मैं अब अपने रहने के लिए एक रक्षिता स्थान खोजने लगा । क्या मालूम मैं कहाँ हूँ, यह देश है या टापू?
मनुष्यों की यहाँ वस्ती है या नहीं? हिंस्त्र जन्तु या नृशंक लोगों का यहाँ भय है या नहीं,-- मैं यह कुछ न जानता था । वहाँ से कोई एक मील पर एक पहाड़ दिखाई दे रहा था । एक बन्दूक और गोली-बारूद ले कर मैं अपने रहने को जगह ठाक करने चला । बड़े बड़े कष्ट से पहाड़ की चोटी पर चढ़कर देखा कि मैं एक टापू में आ गया हूँ । चारों ओर पानी ही पानी नजर आता था, कहीं स्थल का चिह्न भी दिखाई न देता था । पच्छिम ओर तीन-चार मील पर एक पहाड़ और दो छोटे छोटे टापू देख पड़ते थे । मैंने खूब ग़ौर करके देखा, वे दोनों द्वीप गैर आबाद थे और मनुष्य तथा हिंस्त्र पशुओं से बिलकुल खाली थे । वहाँ पक्षी असंख्य देखने में आये । वैसे पक्षी अब तक मैंने कभी न देखे थे । उन पक्षियों में कौन खाद्य थे और कौन अखाद्य, इसका भी मैं निश्चय न कर सका । मैंने एक बाज़ पक्षी की किस्म की चिड़िया मारी ।
जब से संसार की सृष्टि हुई है तब से, मालूम होता है, इस द्वीप में इसके पूर्व कभी बन्दूक की आवाज़ न हुई थी । बन्दूक की आवाज़ सुनकर चिड़ियाँ विचित्र कलरव करके आकाश में उड़ने लगीं । जिस पक्षी को मैंने मारा था उसका मांस बहुत ख़राब था, खाने के येाग्य नहीं था ।
यह देख सुन कर मैं अपनी वस्तुओं के निकट लौट आया और ऐसी आयेाजना करने लगा जिससे निर्विघ्नपूर्वक रात कटे । मैंने चारों ओर बक्स रख कर उसके ऊपर तखा़ रक्खा और झोपड़े के किस्म का छोटा सा कुटीर बना लिया ।
अब मैंने फिर जहाज़ पर से कुछ वस्तुएँ ले आने का इरादा किया । मैं अपने मन में तर्क-वितर्क करने लगा कि बेड़े को ले जाने में सुविधा है या नहीं, पर केाई सुभीता न देख पड़ा । तब भाट के समय पूर्ववत् नीचे की राह से जाने का ही मैंने निश्चय किया । इस दफ़े मैं अपने बदन के कपड़े उतार कर झोपड़े में रख गया ।
दूसरी खेप की चीजें ले आने पर मैंने एक तम्बू बनाया । धरती में कई खँटे गाड़ कर उसके ऊपर मैंने पाल फैला कर एक वस्त्रागार बना लिया ।
इसके अनन्तर जो वस्तुएँ धूप में या पानी में बिगड़ने योग्य थीं उन्हें मैंने तम्बू के भीतर रक्खा और सन्दूकों को तम्बू के चारों ओर इस ढँग से रक्खा जिसमें कोई मनुष्य या हिंस्त्र पशु मुझ पर एकाएक आक्रमण न कर सके । फिर तम्बू के द्वार पर कई एक तख़े खड़े कर के एक खाली बक्स सीधा खड़ा कर के टिका दिया । इस प्रकार चारों ओर अच्छी तरह घेर घार कर के मैं जमीन में एक बिछौना बिछा कर सो रहा । मैंने अपने सिरहाने दो पिस्तौल और पास ही एक बन्दूक भर कर रख ली और निश्चिन्त होकर खूब सोया । बहुत दिनों पर बिछौने का शयन, पूर्वरात्रि का जागरण और दिन भर का परिश्रम, शीघ्र ही मेरी गाढ़ निद्रा के कारण हुए ।
एक मनुष्य के लिए मेरे घर का प्रबन्ध काफ़ी हो चुका था, किन्तु मैंने उतने पर ही सन्तुष्ट न होकर जहाज़ पर से और और चीजे ले आने का संकल्प किया । प्रतिदिन भाटे के समय जाकर जहाज़ पर से पाल और कैम्बिस काट कर ले आता था; रस्सी, डोरी, भीगी हुई बारूद का पीपा, छुरी, कैंची, लोहे की छड़े, लकड़ी और तख़े आदि जो मिल जाता उसे उठा कर वहाँ से डेरे पर मैं रोज़ लाने लगा । तीसरी बार को खोज में फिर कुछ चपातियाँ, एक बर्तन भर मैदा, और चीनी मिली । इन चीजों को मैं बड़ी हिफ़ाज़त से ले आया । चौथी बार मैंने अपने बेड़े पर इतना बोझा रक्खा कि जो किनारे आते आते उलट गया । उस पर जितनी चीजें थीं उनके साथ साथ मैं भी पानी में गिर पड़ा । उससे मेरी विशेष हानि नहीं हुई । मेरी लाई हुई उन चीज़ों में बहुत सी ऐसी थीं जो पानी में डूब नहीं उतराने लगीं । सिर्फ लोहे की वस्तुएँ डूब गई । कितनी ही वस्तुओं को मैं तैर कर पानी में से खींच लाया और कितनी ही वस्तुओं को भाटे के समय ढूँढकर निकाल लाया ।
इस तरह तेरह दिन बीते । इस बीच में ग्यारह बार जाकर जहाज़ पर से--अकेले जहाँ तक हो सका--आवश्यक वस्तुएँ उठा लाया । मैं समूचे जहाज़ को टुकड़े टुकड़े करके धीरे धीरे ऊपर ले आता, किन्तु इतने में वायु का वेग प्रबल हो उठा । फिर भी भाटे के समय मैं बारहवीं बार गया । जहाज़ की एक दराज़ में अस्तुरा, कैंची, काँटा, छुरी और कुछ रुपये मिले । रुपये को देख कर मैंने मन ही मन हँस कर कहा -"बेकार है!
तुम्हारी अपेक्षा मेरे निकट अभी एक छुरी का मूल्य कहीं बढ़ कर है ।" एक बार मैंने सोचा, रुपया लेकर क्या करूँगा किन्तु फिर भविष्य की बात सोच कर उन्हें भी रख लिया । देखा, आकाश में बादल उमड़ रहे हैं । मैं एक बेड़ा बनाने की बात सोच रहा था और कुछ कुछ उसकी आयोजना भी कर रहा था । पन्द्रह मिनट के भीतर ही पानी बरसने लगा और उलटी हवा बहने लगी, आर्थात् किनारे से समुद्र की ओर । वायु की प्रतिकूलता में किनारे तक बेड़ा ले जाना असंभव होगा और ज्वार आने के पहले स्थल भाग में न लौट जायेंगे तो नीचे के रास्ते से लौट जाना भी असंभव है, यह सोचकर मैं पानी मैं उतर पड़ा । देखते ही देखते हवा ने ज़ोर पकड़ा, समुद्र में तरंग पर तरंग उछलने लगी । मेरी पीठ पर गठरी बँधी थी, इसलिए मैं बड़ी कठिनता से किसी तरह तैर कर ऊपर आाया ।
मैंने अपने नव-निर्मित गृह में जाकर बेखटके रात बिताई । सवेरे उठकर देखा, जहाज़ का कहीं नाम-निशान तक नहीं । यह देख कर मैं अत्यन्त विस्मित हुआ । किन्तु मैं इतने दिनों में जहाज़ से चीजें ढो ढो कर ले आया था । और कोई चीज़ लाने को न रह गई थी । यह मेरे लिए विशेष सन्तोष का कारण हुआ । इस समय मैंने जहाज़ के अलक्षित होने की चिन्ता छोड़ कर दूसरे काम में मन लगाया ।
मैंने अपने रहने के स्थान को निरापद करने पर पूरा ध्यान दिया । जंगली असभ्य मनुष्य व हिंस्त्र पशु मेरा कोई नुकसान न कर सकें, इसके लिए कैसा घर बनाना चाहिए-- में यही सोचने लगा । एक बार यह सोचता था कि जमीन में सुरंग खोद कर उसी में रहूंगा, फिर जी में होता कि तम्बू के भीतर ही रहूँगा । आख़िर मैंने दोनों तरह से रहने का निश्चय किया ।
मैं उस समय जहाँ था वह जगह रहने के लायक न थी । समुद्र के किनारे की भूमि सील होने के कारण स्वास्थ्यकर नहीं होती; दूसरे पीने का पानी भी वहाँ अच्छा न था । इसलिए मैं अपने रहने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने लगा ।
मैंने सोच कर देखा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ इतनी बातें होनी चाहिएँ । प्रथम जगह स्वास्थ्यकर हो, दूसरे मीठा पानी हो, तीसरे धूप का बचाव हो, चौथे हिंस्त्र मनुष्य और पशुओं से आत्मरक्षा हो सके; पाँचवें समुद्र का दृश्य हो । यदि जहाज़ को जाते देखूँगा तो किसी तरह भगवान की कृपा से उद्धार हो सकेगा । कारण यह कि मैं तब भी उद्धार की आशा को एकदम छोड़ न बैठा था । घूमते घूमते एक पहाड़ की तलहटी में मुझे समतल भूमि मिली । वहाँ हर तरह का सुभीता देख पड़ा । इस स्थान की बगल में पहाड़ इतना बड़ा था कि कोई प्राणी उस तरफ़ से उतर कर मुझ पर आक्रमण न कर सकता था ।
पहाड़ में एक जगह गुफा की तरह खुदा था, किन्तु वह असली गुफ़ा न थी । एक प्रकार का गड्ढा था ।
मैंने उसी तृणसंकुल हरित-भूमि में पर्वतस्थित खोह के समीप तम्बू खड़ा करने का विचार किया ।
खोह के सामने दस गज हट कर बीस गज व्यास में मैंने धनुषाकार एक अर्धवृत्त का चिह्न अंकित किया । इस अर्धवृत के ऊपर मैंने खूँटे गाड़ कर एक घेरा डाला; प्रथम पंक्ति के पीछे छः इंच दूरी पर फिर एक पंक्ति-बद्ध खूँटों का घेरा बनाया । खूँटों को मैंने खूब मजबूती के साथ गाड़ा था, और खूँटों का सिरा अच्छी तरह बल्लम की तरह पैना कर एकसा कर दिया था । जंगल से खूँटों के उपयुक्त लकड़ी काट कर लाने और उसके सिरे छील कर गाड़ने में मेरा बहुत समय लगा और परिश्रम तो करना ही पड़ा । खूँटे गड़ जाने पर दो पंक्ति-बद्ध खूँटों के बीच की जगह को जहाज की रस्सी से उनकी ऊँचाई के बराबर भर दिया । उसके बाद भीतर से खूँटों की सहायता के लिए तिरछी मेखें गाड़ दीं । यह घेरा ऐसा सुदृढ़ हुआ कि किसी मनुष्य या हिंस्त्र पशु के मुझ पर आक्रमण करने की सम्भावना न रही ।
इस घेरे के भीतर जाने-आने के लिए मैंने कोई दर्वाजा न रक्खा । एक छोटी सीढ़ी के द्वारा घेरे के लाँघ कर जाने आने की व्यवस्था की । इस प्रकार किले की रचना करके मैं खूब निश्चिन्त हो कर रात में खाने लगा । किन्तु बाद को मैंने समझा, इस टापू में मेरा कोई दुश्मन नहीं है । मेरी इतनी सावधानी निरर्थक हुई । इस क़िले के भीतर मैंने अपनी वस्तुओं को पहली जगह से बड़े परिश्रम के साथ ढो ढो कर ला रक्खा । उस प्रदेश में वर्षा बहुत होती थी, इस कारण मैंने दोहरा तम्बू अर्थात् एक के भीतर और एक तम्बू खड़ा किया और ऊपर के तम्बू को तिरपाल से ढँक दिया ।
बहुत दिनों तक मैं बड़े परिश्रम से ये सब काम कर ही रहा था, कि एक दिन काली घटा घिर आई । सारा आकाश-मण्डल काले बादलों से भर गया और इसके साथ ही पानी बरसने लगा । बिजली कड़कने लगी । बिजली की चमक की तरह मेरे हृदय में धक से एक बात याद हो आई, मेरी बारूद!
यदि उसमें आग लग जाय तब तो सर्वनाश हो जायगा । मेरी आत्मरक्षा और आहार-संग्रह करने का उपाय एक दम नष्ट हो जायगा । बारूद में आग लग जाने से अन्यान्य वस्तुओं के साथ मैं भी उड़ जा सकता था--यह चिन्ता पहले मेरे मन में न थी । क्योंकि बारूद से उड़ जाने पर मैं किस तरह, कब मर जाता, यह जानने का अवसर ही न मिलता तो फिर मृत्यु से डरता ही क्यों?
वृष्टि बन्द होने पर, बारूद रखने के लिए, मैं छोटी छोटी थैलियाँ और बक्स बनाने लगा । बारूद के बक्स अलग अलग रक्खे जायेंगे तो एक लाभ होगा । वह यह कि यदि आग लगेगी भी तो सब एक साथ न जलेंगे । यह सोच कर मैं उसी की व्यवस्था करने लगा । मेरे पास प्रायः तीन मन बारूद थी । मैंने उसे सौ हिस्सों में बाँट कर पहाड़ के नीचे गढ़ा खोद खोद कर पृथक् पृथक् गाड़ रक्खा और उन सब जगहों पर भली भाँति निशान भी कर दिया, जिस से खोद कर निकालते समय गड़बड़ न हो । मैंने पूरा प्रबन्ध कर दिया जिससे वे बक्स वर्षा के जल में भीग न जायँ । जिस पीपे में पानी घुस जाने से बारूद भीग गया था उसके लिए कोई चिन्ता न थी । उसे पहाड़ की खोह में रख दिया । यह सब करते धरते मेरे पन्दह दिन कट गये ।
जब मैं किला बना रहा था तब प्रति दिन एक बार काम से छुट्टी पा कर बन्दूक़ हाथ में ले कर यह देखने के लिए बाहर घूमने जाता था कि खाने के कोई उपयुक्त चीज़ मिलती है या नहीं इससे उस द्वीप का परिचय पाने का भी सुयोग मिलता था ।
मैंने देखा कि इस द्वीप में बकरे बहुतायत से हैं; पर वे अत्यन्त डरपोक और बडी फुर्ती से भागते थे । उनके पास तक पहुँचना बड़ा कठिन था । उनको पाकर मुझे पहले जैसा आनन्द हुआ था वैसे ही उनका स्वभाव देख कर हताश होना पड़ा । किन्तु मैंने एकदम आशा नहीं छोड़ी मैं । बराबर उनके पीछे लगा ही रहा । मैंने शीघ्र ही इस बात का पता लगा लिया कि जब वे पहाड़ के ऊपर चरते हैं तब मुझको देखते ही डर के मारे दौड़ कर भाग जाते हैं; परन्तु जब वे पहाड़ की तराई में चरते हैं और मैं पहाड़ पर रहता हूँ तब वे मेरी और बाकते भी नहीं । इससे मैंने समझा कि इन बकरों की आँखें इस खूबी के साथ बनी हैं कि उनकी दृष्टि विशेष कर नीचे ही की ओर पड़ती है । ऊपर की वस्तुओं को वे सहज ही नहीं देख सकते । यह समझ कर के मैं बकरे का शिकार करते समय पहले ही उनसे उच्च स्थान में चढ़ जाता था, और फिर आसानी से उनका शिकार कर सकता था ।
पहले पहल मैंने एक बकरी का शिकार किया । उसके एक छोटा सा बच्चा था । वह उस समय दूध पी रहा था, यह देख कर मुझे बड़ा कष्ट हुआ । जब उस बच्चे की नवप्रसूता माँ धरती पर लोट गई तब बच्चा चुपचाप उसके पास खड़ा हो रहा । यह देखकर मैं दौड़ कर उसके पास गया और उसे गोद में उठा लिया । इसके बाद जब मैं उसे नीचे उतार कर बकरी को कन्धे पर उठाकर ले चला तब वह बच्चा मेरे पीछे पीछे मेरे किले तक आया । मैं उस बच्चे को गोद में उठाकर किले के अन्दर ले गया । मैंने उसे पोसना चाहा पर अभी तक उसे खाना न आता था । वह कुछ भी न खाता था । यह देख मैंने उसे भी मार कर अपने उदरानल की ज्वाला शान्त की । इन दोनों बकरों से बहुत दिनों तक मेरा खाना चला । मेरे पास रोटियाँ बहुत कम थीं, इसलिए मैं उन्हें बहुत बचा कर ख़र्च करता था । मांस मिल जाने से मैं बहुत निश्चिन्त हो गया ।
३०वींं सितम्बर को दो-पहर के समय मैंने इस जनशून्य एकान्त स्थान में पहले पहल पैर रक्खा । यहाँ आये जब दस बारह दिन हुए तब मैंने सोचा कि मेरे पास पञ्चाङ्ग(यन्त्री) नहीं है । तिथि का निर्णय करना पीछे कठिन हो जायगा । इसलिए मैंने एक तख़्ते पर अपनी छुरी से बड़े बड़े अक्षरों में लिखा–-
१६५९ ई० की ३० वीं सितम्बर को मैं यहाँ किनारे आ लगा ।
इसके बाद उस तख़्ते को एक लम्बे से चौकोर खूँटे में लटकाकर मैंने वहाँ गाड़ दिया जहाँ पर मैं पहले किनारे पर आ लग था ।
उस चौकोर खूँटे में प्रतिदिन मैं छुरी से एक एक चिह्न करने लगा । प्रति सातवें दिन का दाग़ कुछ बड़ा कर देता था, और महीने की पहली तारीख का दाग उससे भी बड़ा कर देता था । इस प्रकार मैंने अपनी यन्त्री बना कर के तिथि, सप्ताह, महीना और वर्ष जानने का उपाय कर लिया ।
मैं जहाज़ पर से कुछ कोरा काग़ज़, कलम, रोशनाई, तीन चार कम्पास, नक्शा, किताब, और बाइबिल की पुस्तकें ले आया था । हमारे जहाज़ पर दो बिल्लियाँ और एक कुत्ता था । मैं पहली ही बार जाकर जहाज़ पर से दोनों बिल्लियों को ले आया था । कुत्ता आप ही तैर कर मेरे पीछे पीछे चला आया । यही तीनों इस समय मेरे संगी-साथी थे । बिल्ली और कुत्ते ने बहुत दिनों तक मेरा बहुत कुछ उपकार किया था । मैं चाहता था कि वे मर साथ बात करें, पर एसा होना कब संभव था!
जो हो, मैं उनके साथ रहने से बहुत खुश था ।
जब तक मेरे पास रोशनाई रही तब तक मैं सब बातों का विवरण बहुत सफ़ाई से लिखता जाता था । पर जब स्याही चुक गई तब मैं किसी उपाय से भी स्याही न बना सका ।
घर द्वार बना लेने पर मुझे कई वस्तुओं की कमी का अनुभव होने लगा । खनती, कुदाल, खुरपी, आल-पीन, सुई और डोरा तथा परिघेय वस्त्र के न रहने से मेरे गृहस्थी के कामों में बाधा पड़ने लगी। प्रत्येक कार्य का सम्पादन बहुत विलम्ब और कठिनता से होने लगा। इससे पहले तो जी में बड़ा रंज होता था, किन्तु फिर मैंने सोचा, कि कोई काम जल्दी होने ही से क्या लाभ। और काम ही क्या है, जिसके लिए समय बचाऊँगा?
जब तक जिस काम में लगा रहूँगा तब तक उसी को मैं अपना कर्तव्य समझूँगा।
इन परिश्रमसाध्य कामों में लगे रहने से भी कभी कभी मेरा मन उदास और हताश हो जाता था। मैं दैवयोग से जिस स्थान में आ पड़ा था वह सर्वथा जनशून्य और सभ्यसमाज तथा वाणिज्य-पथ से बहिर्भूत था। यहाँ मैं अकेला था। यहाँ से उद्धार की भी कोई आशा न थी। यहाँ अकेले ही रह कर जीवन का शेष भाग बिताना होगा। यह चिन्ता जब मेरे मन में आती थी तब मैं बालक की तरह फूट फूट कर रोता था। धीरे धीरे यह अवस्था भी बहुत कुछ सह्य हो चली। मैं बीच बीच में अपने भाग्य की समालोचना कर के मन को शान्ति देने की चेष्टा करता था और अपनी वर्तमान अवस्था के सुख-दु:ख की गणना कर के मन को धैर्य देता था। इस प्रकार मैं अपने भाग्य के भला-बुरा कह कर मन को समझाता था।
अच्छा
मैं जीता हूँ अपने साथियों की तरह डूब कर नहीं मरा।
बुरा
मैं निर्जन टापू में आ फँसा हूँ, यहाँ से मेरा उद्धार होने की अब आशा नहीं।
अच्छा
मैं अपने साथियों से अलग हो गया, इसीसे अब तक बचा हूँ। जिन्होंने मेरे प्राण बचाये हैं, वही किसी दिन मेरे उद्धार का भी उपाय कर देंगे।
मैं मरुभूमि के अन्न-जलहीन देश में नहीं आ पड़ा हूँ। यहाँ खाद्य-सामग्री मिलती है। यह उष्ण-प्रधान देश है। ज़्यादा कपड़ों की भी आवश्यकता न होगी।
यहाँ मुझे दुश्मनों का भी कोई डर नहीं। यदि मैं आफ़्रिका के उपकूल में पहुँच जाता तो अवश्य प्राणों का भय था। ईश्वर ने विशेषकर मुझे काम में लगा रक्खा है और जहाज़ को स्थल भाग के समीप लाकर मेरे जीवन के लिए सभी आवश्यक वस्तुएँ दे दी हैं।
बुरा
मैं इस दुनियाँ से जुदा हो गया। संसारी लोगों से अब भेंट होने की संभावना नहीं।
मेरे पास खाने-पीने की सामग्री और पहनने-ओढ़ने के लिए कपड़े कम हैं।
मेरे प्राणधारण का कोई अवलम्ब नहीं। पास में ऐसा एक भी आदमी नहीं जो मुझ को धैर्य दे सके या जिसके साथ दो बातें कह कर मैं अपने जी का बोझ हलका कर सकूँ।
मतलब यह कि मेरी अवस्था संसार में विशेष शोचनीय होने पर भी ऐसा कुछ योग था जिसके द्वारा मुझे कुछ सान्त्वना मिलती थी। जब मैं अपने भले-बुरे की तुलना करता था तब अच्छे का ही अंश अधिक देखने में आता था । दयामय भगवान् की लीला ही ऐसी है । वे संसार में किसी को निरवच्छिन्न दु:ख नहीं देते ।
इस प्रकार अपने भावी सुख-दुःख की बातों से चित्त को स्थिर कर के मैंने घर बनाने की ओर ध्यान दिया । लकड़ी के घेरे से सटा कर मैंने मिट्टी की दीवार बनाई और पहाड़ से लेकर दीवार तक कड़ी-तख्ते बिछा कर उस पर पत्तों की छावनी कर दी । क्योंकि इस प्रदेश में खूब ज़ोरों की वर्षा होती थी ।
मैंने अपनी सब वस्तुओं को घर में सिलसिलेवार रख दिया । अब जिन आवश्यक वस्तुओं का अभाव था और जिन के बिना कष्ट होता था उन्हें तैयार करने का इरादा किया टेबल और कुरसी के न रहने से मैं अपने जीवन का थोड़ा सा समय भी सुख से न बिता सकता था । न मैं कुछ लिख सकता था, न बैठ कर कुछ पढ़ सकता था । खाने में भी कठिनाई होती थी । मैंने टेबल-कुरसी बनाना आरम्भ किया । मैंने इसके पहले कभी मिस्त्री का काम न किया था, किन्तु परिश्रम और अध्यवसाय के द्वारा मैंने शीघ्र ही उस काम में सफलता प्राप्त की । मेरे पास सब प्रकार के औज़ार न थे, तथापि कुछ हथियारों के बिना ही मैंने बहुत सी चीजें बना लीं । किन्तु इन कामों में मेरा बहुत समय नष्ट होता था और परिश्रम भी अधिक करना पड़ता था । पर उस समय मेरे परिश्रम और समय का मूल्य ही क्या था?
किसी न किसी तरह कुछ परिश्रम और व्यावहारिक कामों के लिए समय का विभाग करना ही पड़ता । जो औज़ार मेरे पास न था उसका काम मैं बुद्धि से लेता था । मान लो; मेरे पास (लकड़ी चीरने का) आरा नहीं था और मुझे तख्ते की आवश्यकता हुई, उस हालत में मैं कुल्हाड़ी से पेड़ काट गिराता था और उसके दोनों ओर की लकड़ी छील कर एक चपटा चौड़ा सा तख्ता तैयार कर लेता था । उस तख्ते पर रन्दा फेर कर चिकना कर लेता था । इस तरकीब से, बहुत परिश्रम करने पर, एक पेड़ से सिर्फ एक मोटा सा तख्ता तैयार होता था, पर हो तो जाता था ।
जहाज़ पर से मैं जो तख़्ता लाया था उससे पहले पहल मैंने एक टेबल और एक कुरसी बनाई । इसके बाद पेड़ से तख्ता निकाल कर उसके द्वारा घर में ताक़ ( रैक ) बनाया और उस पर सब चीजें करीने से रख दीं जिसमें जरूरी चीज जब चाहें उस पर से निकाल लें ।
यहाँ मैं अपना रोज़ रोज का काम,विचार और घटना आदि, दैनिक वृत्तान्त लिखकर डायरी तैयार करने लगा । इसमें मैंने अपनी चित्त-वृत्ति के अनुसार अनेक प्रकार की बातें लिखी थीं । निदान जब मेरी रोशनाई चुक गई तब मुझे लाचार होकर लिखने से हाथ खींचना पड़ा । मेरी डायरी में कितनी ही बातें बेसिर-पैर की थीं, जिनमें से चुन चुन कर मैंने विशेष विशेष दिन की प्रधान घटनायें यहाँ उद्धृत की हैं ।
३० दिसम्बर सन् १६५९ ईसवी—मैं दीन मतिहीन अभागा राबिन्सन क्रूसो, जहाज डूब जाने पर, इस भय दूर जनशून्य टापू में आपड़ा था र। इस टापू का नाम मैंने 'नैराश्य द्वीप' रक्खा था। मेरे साथी सभी डूब कर मर गये । मैं ही अधमरा सा होकर किसी किसी तरह किनारे आ लगा ।
भोजन, वस्त्र, आश्रय और अस्त्र से रहित होकर मैं अपने चारों ओर मृत्यु की भीषण मूर्ति देखने लगा । वन्य पशुओं के ग्रास से या असभ्य निर्दय मनुष्य के हाथ से या क्षुधा की ज्वाला से अपनी अनिवार्य मृत्यु की बात सोच कर मैं अपने जीवन से हताश होगया था । रात को मैं जंगली पशुओं के भय से पेड़ पर चढ़ कर सो रहा । उस अवस्था में भी सारी रात पानी बरसता ही रहा, तो भी मैं खूब गाढ़ी नींद में सोया ।
पहिली अक्तूबर--मैंने सबेरे उठकर देखा, हम लोगों का भग्न जहाज़ ज्वार में उपलाता हुआ स्थल भाग के समीप आ लगा है । यह देखकर मेरे मन में हर्ष और विषाद दोनों हुए । हर्ष का कारण यह था कि हवा कुछ थम जाने पर मैं जहाज़ पर से अपनी आवश्यकता के अनुसार चीजें ले आ सकूँगा । विषाद का कारण यह था कि हम लोग नाव पर न चढ़ कर यदि जहाज़ ही पर रहते तो सब के सब बच जाते ।
पहिली अक्तूबर से २४ वीं अक्तूबर तक--इन कई दिनों में मैं वर्षा के पानी में भीग भीग कर, ज्वार के समय, बेड़ा तैयार करके जहाज़ पर से बराबर चीज़ वस्तु ढोता रहा ।
२० अक्तूबर को मेरा बेड़ा उलट जाने से सब चीजें पानी में गिर गई और मैं भी गिर पड़ा । भाटे के समय मैं प्रायः वस्तुओं को निकाल लाया ।
२५ अक्तूबर—-जहाज़ टूट फूट कर ग़ायब हो गया । दिन रात पानी बरसता रहा ।
२६ अक्तूबर से ३० अक्तूबर तक--रहने के लिए जगह की खोज, और पहाड़ की तलहटी में स्थान का निरूपण । किले का निर्माण ।
३१ अक्तूबर-—द्वीप देखने के लिए बाहर निकल कर मैंने बकरी का शिकार किया और मरी हुई बकरी और उसके जीवित बच्चे को घर ले आया ।
३ नवम्बर--दिन के पिछले पहर से मैं मेज़ बनाने में लगा । तीन दिन में मेज़ बन कर तैयार हो गई ।
५ नवम्बर—-बन्दूक़ और कुत्ते को साथ ले जाकर मैंने एक वनविड़ाल मारा । उसका चमड़ा बहुत मुलायम था । मैं जिस जन्तु का शिकार करता था उसका चमड़ा निकाल कर रख लेता था । समुद्र के किनारे घूमते-फिरते मैंने भाँति भाँति के कितने ही अपरिचित पक्षी देखे । अजीब तरह के दो तीन जन्तु देख कर मैं चकित और भयभीत सा हो गया । ये जानवर कौन हैं?
यह तजवीज़ करके मैं देख ही रहा था कि वे भाग गये । मैं उनका शिकार न कर सका ।
७ नवम्बर से १२ तक--आकाश बिलकुल साफ़ हो गया था । इन कई दिनों में किसी तरह मैंने एक कुरसी बना ली । किन्तु उसकी गढ़न मेरे पसन्द की न हुई । मैंने उसको तोड़ ताड़ कर अपने पसन्द लायक बनाने की कई बार कोशिश की, पर मैं कृत-कार्य न हो सका ।
१३ नवम्बर से १७ तक--फिर खूब जोर शोर से वर्षा, वायु, बिजली और वज्राघात का भयंकर दृश्य दिखाई दिया । मैंने डर कर बारूद को थोड़ी थोड़ी करके अलग अलग रखने का विचार किया । छोटी छोटी थैलियाँ और बक्स बना करके उन में बारूद भर दी और पहाड़ के नीचे गढ़ा खोद कर उन्हें अलग अलग गाड़ रक्खा । गढ़ा खोदने का काम मैंने सिर्फ़ बाँस की टोकरी और गैंती से लिया । उस समय मुझे खनती और कुदाल के अभाव का अनुभव हुआ ।
१८ नवम्बर--वन में घूमते फिरते मैंने एक प्रकार का पेड़ देखा । उसकी लकड़ी बहुत मज़बूत और भारी थी । इस कारण ब्रेज़िल में लोग उसे लौहकाष्ठ कहते थे । मैंने उस पेड़ की एक डाल को बड़े बड़े कष्ट से, अपनी कुल्हाड़ी को नष्टप्राय करके, काटा । वह डाल बहुत भारी थी, इससे उसे किसी तरह घसीट कर घर ले आया । रोज़ रोज़ उसे थोड़ा थोड़ा छील छाल कर ठीक कुदाल की तरह बनाया । कसर इतनी ही रही कि उसकी धार को कुदाल की तरह झुका न सका । वह बेंट के साथ सीधी ही रही । किन्तु एक टोकरी की कमी तब भी मुझे बनी ही रही । टोकरी बिनने के काम की सहज ही में जमने येाग्य कोई चीज़ ढूँढ़ने से भी अब तक मुझे न मिली ।
२३ वीं नवम्बर से ३१वीं दिसम्बर तक--मेरे तम्बू के पीछे जो एक खोह थी उसे खेद कर धीरे धीरे उसके द्वार को बढ़ाने तथा उसके बीच की जगह को मैं विस्तृत करने लगा । १० वीं दिसम्बर को खोह की छत एकाएक नीचे धँस गई । यदि मैं उस समय खोह के भीतर रहता तो जीता जागता ही कब्र में गड़ जाता । इस दुर्घटना से मैं बहुत ही डरा । फिर कहीं ऐसी ही घटना न हो जाय, इस कारण छत में नीचे से खम्भा लगा दिया । छत की मिट्टी जो धँस गई थी उसे काट कर बाहर फेंक दिया और छत के नीचे तख़्ता लगा कर खम्भे पर साध दिया। इस तरह छत को सुरक्षित करके ताक़ (रैक) बनाया। जो चीजें ताक़ पर रखने योग्य थीं उन्हें ताक़ पर रक्खा और कितनी ही वस्तुएँ दीवाल में खूँटी गाड़ कर लटका दीं। इससे थोड़ी सी जगह में बहुत वस्तुओं के रखने का सुभीता हुआ।
२७ दिसम्बर को एक बकरी के बच्चे को गोली से मारा और एक के पाँव में छर्रा मार कर उसे लँगड़ा कर दिया। लँगड़ा हो जाने के सबब वह भाग नहीं सका। उसे पकड़ कर मैं घर ले आया और उसके टूटे हुए पाँव में पट्टी बाँध दी। मेरे यत्न से वह थोड़े ही दिनों में अच्छा हो गया। फिर छोड़ देने पर भी वह भागता न था। यह देख कर मेरा ध्यान पशुपालन की ओर गया। उससे लाभ यह था कि खाद्य-सामग्री समाप्त हो जाने और गोली-बारूद न रहने पर भी क्षुधा का निवारण हो सकेगा।
पहली जनवरी--गरमी बड़ी भयानक पड़ती है। मैं सबेरे और साँझ को बन्दूक़ लेकर घूमने जाता हूँ और दोपहर को सोता हूँ। आज मैंने घूमते समय एक जगह, पहाड़ की तराई में, बकरों का झुंड देखा। वे बड़े डरपोक थे। कुत्ते द्वारा मैंने शिकार खेलने का इरादा किया।
दूसरी जनवरी--मैं अपने कुत्ते को साथ लेकर बकरों का शिकार करने गया। बकरों के झुंड पर मैंने कुत्ते को छोड़ दिया। किन्तु सब बकरे कुत्ते की ओर घूम कर--आँखें फाड़ कर, सींग और कानों को सीधे करके--खड़े हो गये । डर के मारे कुत्ता उनके पास न जा सका ।
तीसरी जनवरी से लेकर १६ वीं अप्रैल तक--मैंने अपने किले के घेरे पर चारों ओर घास जमा दी, इससे बाहर से देख कर कोई नहीं जान सकता था कि यहाँ केई रहता है । ऐसा करने से पीछे मेरा बहुत उपकार हुआ ।
इस समय मुझे कोई काम न था । वृष्टि बन्द होते ही मैं जंगल में घूमने चला जाता था । एक दिन मैंने जंगली कबूतरों का बसेरा ढूँढ़ निकाला । वे पहाड़ की दरार और कन्दरओं में रहा करते थे । मैंने उनके कई बच्चों को लाकर पालने की चेष्टा की, किन्तु कुछ बड़े होने पर वे उड़ गये । मालूम होता है, खाद्य का अभाव ही उनके उड़ जाने का कारण हुआ । असल में उनको खिलाने के लायक मेरे पास.
कोई चीज़ न थी । जो हो, मैं जब घूमने जाता था तब कबूतर के दो-चार बच्चे अक्सर ले आता था । इनका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है ।
अब मुझे अनेक वस्तुओं की कमी से कष्ट-होने लगा । इस में भी दिये का न होना ख़ास तौर पर खटकता था । साँझ होते ही ऐसा अंधेरा हो जाता था कि बिछौने से अलग होना मेरे लिए कठिन सा हो जाता था । अफ्रिका से भागते समय मैंने मोमबत्ती जला जला कर रोशनी की थी; किन्तु यहाँ तो मेरे पास वह भो न थी । मैंने बकरी की थोड़ी सी चरबी रख ली थी । अब मिट्टी का एक दियाबना कर उसे मैंने धूप में सुखा लिया । उसी में थोड़ी सी चरबी तथा कपड़े की बत्ती डाल कर दिया जलाने लगा । इस से प्रकाश होता था सही, पर मोमबत्ती की तरह स्थिर और साफ़ रोशनी न होती थी ।
जहाज़ पर से मैं बोरे भर अनाज ले आया था । एक दिन जाकर मैंने देखा कि समूचे बोरे का अन्न चूहों ने खा डाला, सिर्फ भूसी बच रही थी । तब मैंने बोरे का मुँह खोल कर भूसी को इधर उधर ज़मीन पर फेंक दिया ।
करीब एक महीने के बाद बरसात का पानी पाकर हरे हरे अंकुर मिट्टी के नीचे से निकल आये । यह देख कर मैं बड़े ही अचम्भे में आ गया । मैं सोचने लगा, पर निश्चय न कर सका कि ये किस पेड़-पौदे के अंकुर हैं । कुछ दिन बाद जब उन में दस बारह पत्ते निकल आये तब मैंने उन्हें सहज ही पहचान लिया । वे जौ के पौदे थे ।
यह देख कर मेरे मन में आश्चर्य का भाव उत्पन्न हुआ । और भाँति भाँति की चिन्तायें उदित हुई । उनका वर्णन करने में मैं सर्वथा अक्षम हूँ । अब तक मैं धर्म की सीमा से बाहर था । मैं नहीं मानता था कि धर्म भी कुछ है । मेरे भाग्यानुसार जब जो कुछ होजाता था उसे मैं एक घटना मात्र समझता था । ईश्वर के सम्बन्ध में भी मेरी बहुत हलकी सी कुछ कुछ धारणा थी; किन्तु इस समय इस जनशून्य टापू में, ऐसी विषम अवस्था में, मानो बिना ही बीज के अनाज के पौदे उत्पन्न होते देख मैंने परमेश्वर की दयालुता और संसार-भरण का पूरा परिचय पाया । मैंने समझा, ईश्वर ने मेरी ही रक्षा के लिए इस निर्जन टापू में अनाज उपजाया है । इस समय मेरे मन में दृढ़ विश्वास हुआ--
जाको राखे साँइयाँ मार सकै नहिं कोइ ।
बाल न बाँका करि सकै जो जग बैरी होई ॥
ईश्वर की ऐसी उदारता देख मेरा सूखा हुआ प्राण फिर हरा हो गया; आँखों में प्रेमाश्रु भर आये। मेरे लिए मुझ से कुछ कहे सुने बिना ही भीतर ही भीतर विश्वम्भर का कैसा विराट् आयोजन हो रहा है, इसका अनुभव कर के मैं भगवान् को धन्यवाद देने लगा। यह देख कर मैं और भी विस्मित हुआ कि पहाड़ के आस पास भी अनाज के पौदे उगे हैं।
मैंने सोचा कि जब यहाँ अनाज के पौदे उत्पन्न हुए हैं तब इस द्वीप के अन्यान्य स्थलों में भी अनाज उपजते होंगे। इसी की जाँच के लिए मैं टापू की देख भाल करने गया। पर अनाज का एक भी पौदा कहीं दिखाई न दिया। तब मुझे स्मरण हो आया कि मैंने जो बोरे से निकाल कर भूसी फेंक दी थी उसीसे अनाज के ये अंङ्कुर उगे हैं। भगवान् की पालन-व्यवस्था के प्रति जो विश्वास हुआ था वह, इस ओर ध्यान जाते ही, बहुत कम पड़ गया। मेरी पहले की धारणा फिर मेरे सामने आ खड़ी हुई। मैंने समझा कि यह तो मेरे ही द्वारा स्वाभाविक घटना के अनुसार हुआ है। किन्तु चिरकाल का अविश्वासी मैं यह न समझ सका कि यह घटना क्योंकर, किसकी प्रेरणा से, हुई। चूहों ने एक तरह सब अनाज खा ही डाला था। उनमें किसी किसी दाने को अविकृत रूप में किसने बचा रक्खा था?
उन तुषों को पहाड़ की तराई में फेंकने के लिए किस ने मुझे प्रेरित किया था? उसे समुद्र में न फेंक कर मैंने ज़मीन में ही क्यों फेंका? पानी में फेंकने से वह सड़ जाता और दूसरी जगह फेंकने से सूर्य के प्रचणड ताप में पड़ कर सूख जाता, किन्तु यहाँ पहाड़ की छाया में पानी पड़ते ही वह अंङ्कुरित हो उठा। यह सब भगवान् का सदय विधान नहीं तो क्या था?
जौ का पौधा पक जाने पर मैंने बड़ी हिफ़ाज़त से उसे रक्खा, और जब उसके बोने का समय आया तब मैंने उसे बो कर अपने खाद्य-संग्रह के उपाय की आशा की। किन्तु पहले साल मैं ठीक समय पर बीज न बो सका, इस कारण आशानुरूप फल न हुआ। इस प्रकार क्रमशः खेती करने की ओर उस देश के जल-वायु की अभिज्ञता प्राप्त करते तथा अपने ख़र्च लायक़ अनाज उपजाते चार वर्ष बीत गये। पर चौथे साल भी मैं साल भर के ख़र्च चलने योग्य अनाज न उपजा सका। इसका पूरा वृत्तान्त मैं फिर किसी जगह लिखूँगा।
१७ वीं अपरैल से ३० वीं तक--मेरे घर का घेरा, क़िला और सीढ़ी आदि सब ठीक हो गया। इस समय घेरे को लाँघ कर आये बिना कोई मुझ पर आक्रमण न कर सकता था। इससे मैं निश्चिन्त हो कर रहने लगा।
किन्तु मेरा सब परिश्रम व्यर्थ और प्राणनाश होने की एक घटना अचानक हो गई। मैं अपने तम्बू के पिछवाड़े खोह के द्वार पर बैठ कर काम कर रहा था। उसी समय एकाएक खोह की छत, और मेरे सिर पर पहाड़ से मिट्टी झड़ कर गिरने लगी। गुफा के भीतर जो दो खम्भे छत को थामे खड़े थे वे खूब ज़ोर से फट कर टूट पड़े। यह देख कर मैं बेहद डर गया मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। मैं तब भी ठीक कारण न समझ सका। मैंने समझा, जैसे पहले एक बार छत धँस गई थीं वैसे ही इस दफ़े भी कुछ घटना हुई है। किन्तु कहीं मैं इसके नीचे दब न जाऊँ, इस भय से दौड़ कर मैं किले के पास गया; परन्तु वहाँ भी पहाड़ के ऊपर से माथे पर पत्थर गिरने की सम्भावना देख अपने घर की दीवार फाँद कर बाहर निकल गया।
धरती पर पाँव रखते ही मैंने समझ लिया कि भयङ्कर भूकम्प हो रहा है। आठ आठ मिनट के अन्तर से तीन बार ऐसे जोर से भूडोल हुआ कि उसके धक्के से पृथ्वी पर के बड़े बड़े मजबूत आलीशान मकान भी भूमिसात् हो जाते। मेरे घर से करीब आध मील पर, समुद्र के कछार में, एक पहाड़ था। उसका शिखर भयानक शब्द के साथ फट कर टूक ट्रक होकर नीचे गिर पड़ा। ऐसा भयानक शब्द मैंने अपनी जिन्दगी में कभी न सुना था। इससे समुद्र का जल भी भयानक रूप से ऊपर की ओर उछलने लगा। ऐसा जान पड़ा मानो स्थल की अपेक्षा भूकम्प का असर विशेष कर पानी पर ही पड़ता है।
ऐसी घटना मैंने आज तक न कभी देखी थी न सुनी। मैं यह भयानक दृश्य देख कर मृतवत् निश्चेष्ट हो रहा। समुद्र में जहाज डोलने से जैसा जी मचलाता है, वैसे ही भूकम्प से भी मेरा जी मचलाने लगा। किन्तु पहाड़ टूटने का शब्द सुनकर मेरा होश ठिकाने आगया। मेरे तम्बू के पीछे का पहाड़ टूटकर कहीं एक ही पल में मेरा सर्वनाश न कर दे, इस आशङ्का ने तो मुझे एकदम हतबुद्धि कर दिया।
तीसरी बार कम्प होने के पीछे जब कुछ देर कम्प न हुआ तब मेरे जी में कुछ साहस हो आया। किन्तु जीते ही कहीं दब न जाऊँ, इस डर से मैं दीवार कूद कर भीतर न जा सका। धैर्य च्युत और किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर मैं जमीन पर ज्यों का त्यों बैठा रहा। इतनी देर तक मैं बराबर "हे ईश्वर, हे करुणा-मय!
मेरी रक्षा करो" यही पुकार रहा था। इसके सिवा मेरे मन में किसी अन्य धर्म का समावेश न था। किन्तु मैं ऐसा अधार्मिक था कि प्राणनाश का भय दूर होते ही मेरे मन से ईश्वरस्मरण का वह पवित्र भाव शीघ्र ही विलीन होगया।
रहने के लायक स्थान और गृह-निर्माण के लिए जिन चीज़ों की आवश्यकता है उनकी व्यवस्था करने ही में दो दिन बीत गये। दब जाने की आशङ्का से रात में तम्बू के भीतर निश्चिन्त होकर मैं सो न सकता था। किन्तु ऐसे परिश्रम से बनाया हुआ सुरक्षित और सुसज्जित घर छोड़ने को भी जी न चाहता था। घरके माल-असबाब को यहाँ से ढोकर लेजाने ही में फिर कितना समय लगाना और परिश्रम करना होगा। तब जितने दिन तक नया घर खूब मज़बूती के साथ बन कर तैयार न हो ले तब तक जी-जान अर्पण कर मैं ने यहीं रहने का विचार किया।
मैं नया घर बनाने का उपाय सोचने लगा। किन्तु मेरे पास कितने ही आवश्यक हथियार न थे। छोटी छोटी कुल्हाड़ियाँ तो मेरे पास बहुत थीं, पर बड़ी तीन ही थीं। अफ्रिका में छोटी कुल्हाड़ियों का ही विशेष प्रयोजन जान कर मैं उन्हीं को बहुतायत से साथ लाया था, किन्तु सख़्त लकड़ियाँ काटते काटते प्रायः सभी की धार बिगड़ गई थी। मेरे पास सान चढ़ाने की कल थी, पर वह इतनी बड़ी और भारी थी कि उसे एक हाथ से घुमा कर दूसरे हाथ से सान चढ़ाना मेरे सामर्थ्य से बाहर की बात थी। मैं सोचने लगा कि किस युक्ति से इसका प्रतीकार हो सकता है। यहाँ मेरे जीवन-मरण की कठिन समस्या उपस्थित होगई। इसलिए इस समय की गुरुतर चिन्ता का वर्णन करना वृथा
होगा। बहुत देर तक सोचते सोचते मैंने एक युक्ति निकाली। सान के नीचे एक पहिया और एक रस्सी लगा कर मैंने पैर के बल से सान चलाने की व्यवस्था की। मेरे पास जितने हथियार थे, सब पर मैंने दो दिन में सान चढ़ा दी।
मैंने देखा कि मेरे खाने-पीने की चीज़ें बहुत कम रह गई हैं, तब मैं प्रतिदिन एक बिस्कुट खाकर ही दिन काटने लगा। इससे मन में बड़ी चिन्ता हुई।
पहली मई--सबेरे उठ कर मैंने ज्यों ही समुद्र की ओर देखा त्यों हीं भाटे में एक जगह पीपे के सदृश केई वस्तु देख पड़ी। मैंने कुतूहलवश पास जाकर देखा तो एक बारूद का पीपा था और टूटे जहाज़ के दो तीन टुकड़े थे। बारूद में पानी पड़ने से वह पत्थर की तरह सख़्त होगई थी। तो भी मैं बारूद के पीपे को लुढ़का कर ज़मीन पर ले आया। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो एक जहाज़ पानी से कुछ ऊपर उठ आया हो। मैं बालू पर होकर जहाज़ की ओर अग्रसर हुआ।
समीप में जाकर देखा तो जहाज़ का पिछला हिस्सा बालू को ठेल कर कुछ ऊपर चढ़ आया था। जहाज़ तक जाने में मुझे पाव मील रास्ता पानी में तय करना पड़ा। अभी भाटे का समय था, अतएव मैं नीचे ही की राह से जहाज तक गया। जहाज़ को देख कर मैं पहले बहुत अचम्भे में आगया। फिर मैंने समझा कि यह भूकम्प का ही काम है। भूकम्प के कारण जहाज़ और भी टूट फाट गया था। इससे उसकी कितनी ही वस्तुएँ ज्वार के समय उपला उपला कर किनारे आने लगीँ।
इस नूतन घटना ने मेरे रहने के लिए जगह चुनने का संकल्प एक रूप से भुला दिया। अब मैं इस फ़िक्र में लगा कि जहाज़ के भीतर किसी तरह घुस सकता हूँ या नहीं। जहाज़ के भीतर बालू भर गई थी, इससे भीतर घुसने की आशा एक तरह क्षीण सी होगई थी, किन्तु मैंने हताश न होकर एक युक्ति सेची। युक्ति यही कि यदि जहाज़ के भीतर न जा सकूँगा तो उसके टुकड़े टुकड़े करके ऊपर ले जाऊँगा। कारण यह कि मुझे जो कुछ भी मिल जाता था वही कभी न कभी मेरे किसी न किसी काम में आ जाता था।
मैंने कुल्हाड़ी से एक डेक की कड़ी को काट डाला और उस पर से, जहाँ तक हो सका, बालू को निकाल फेंका। किन्तु ज्वार आते देख मुझे इस काम से निवृत्त होना पड़ा।
४ मई--मैं मछली पकड़ने गया, किन्तु खाने योग्य एक भी मछली न पकड़ सका। जब मैं मछली का शिकार ख़तम कर चलने पर हुआ तब मैंने एक छोटी सी डौलफ़िन (एक प्रकार की सामुद्रिक मछली) पकड़ी। मैंने सूत की रस्सी से डोरा निकाल कर मछली पकड़ने की तग्गी बना ली थी, किन्तु मेरे पास बनसी न थी। तो भी मैं अपने खाने भर को यथेष्ट मछली पकड़ लेता था। मैं मछलियों को धूप में सुखा कर रख छोड़ता था और सूखी मछलियाँ ही खाता था।
पाँचवीं मई से पन्द्रहवीं जून तक--खाने और सोने आदि का आवश्यक समय छोड़ कर जो समय बचता था उसे मैं भग्न जहाज के लूटने ही में लगाता था। लकड़ी का तख़्ता, लोहा, सीसा आदि जो कुछ पाता था ले आता था।
सेलहवीं जून--मुझे समुद्र के किनारे एक कछुआ मिला।
सत्तरहवीं जून--मैंने कछुए को पकाया, उसके पेट में ६० अंडे थे। जब से यहाँ आया तब से लगातार बकरों और चिड़ियों का मांस खाते खाते जी ऊब गया था। आज कछुए का मांस बड़ा स्वादिष्ट जान पड़ा। मानो ऐसा स्वादिष्ट पदार्थ आज तक मैंने जीवन भर में कभी न खाया था।
अट्ठारहवीं जून से चौबीसवीं जून तक--दिन भर पानी बरसता रहा, इस कारण मैं घर से बाहर न निकल सका। कुछ कुछ जाड़ा भी मालूम होने लगा। धीरे धीरे सारा शरीर काँपने लगा। मैं रात भर बेचैन पड़ा रहा। सिरदर्द के साथ साथ बुखार चढ़ आया। क्रमशः बेचैनी बढ़ने लगी। इस मानवशून्य टापू में अकेला मैं, बीमारी के भय से ही, अधमरा सा हो गया। हल बन्दर के तूफ़ान के बाद आज मैंने फिर परमेश्वर से प्राणरक्षा के लिए प्रार्थना की। पर मैंने उन से क्या क्या कहा, यह मुझे स्मरण नहीं। उस समय मेरा मन ऐसी घबराहट में था कि मैं एकदम हतज्ञान सा हो रहा था। मेरी बुद्धि ठिकाने न थी। दो एक दिन कुछ अच्छी हालत रही, फिर दो एक दिन बहुत ख़राब मालूम होने लगी। सिर के दर्द से मैं और भी अधिक कष्ट पा रहा था।
पच्चीसवीं जून--आज बड़े वेग से ज्वर चढ़ आया। पहले खूब जाड़ा लगा, इसके बाद दाह हुआ, और अन्त में पसीना आया। सात घंटे तक ज्वर रहा।
छब्बीसवीं जून--आज तबीयत कुछ अच्छी थी, पर कमज़ोरी बहुत थी। घर में कुछ खाने को न था, क्या करता?
बन्दूक लेकर बाहर निकला। एक बकरी को मार कर बड़े कष्ट से उसे उठा कर घर लाया। थोड़ा सा मांस भून कर खाया। इस समय यदि मांस का यूष बना कर पीता तो अच्छा होता; परन्तु मेरे पास शोरबा बनाने के लिए कोई बर्तन न था, कैसे राँधता?
२७ जून--आज फिर खूब जोर से बुखार हो आया। दिन भर बिछौने पर भूखा पड़ा रहा। प्यास से छाती फटी जाती थी किन्तु उस समय इतनी शक्ति न थी कि उठ कर पीने के लिए पानी ले सकूँ। मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। मेरा दिमाग खाली मालूम होता था। जब न भी ख़ाली जान पड़ता था तब भी मैं ठीक न कर सकता था कि क्या कह कर ईश्वर का भजन करूँ। मैं सिर्फ़ बार बार यही कहने लगा, "प्रभो, एक बार मेरी ओर देखो, मुझ पर दया करो। मेरी रक्षा करो।" दो तीन घंटे बाद ज्वर का वेग कुछ कम पड़ने पर मैं सो गया। रात ज़्यादा बीतने पर नींद टूटी।
नींद टूटने पर मैंने अपने को बहुत स्वस्थ पाया। किन्तु कमजोरी बहुत थी। प्यास के मारे कण्ठ सूख रहा था। घर में पानी न था। प्यास को रोक कर फिर सोने की चेष्टा करते करते कुछ देर में सो रहा। मैंने सपना देखा कि मैं अपने घेरे के बाहर भूकम्प के दिन जहाँ बैठा था वहीं बैठा हूँ। इतने में देखा कि एक मनुष्य काले बादल के भीतर से निकल कर आग के रथ पर चढ़ा हुआ नीचे की ओर आ रहा है। उस मनुष्य का शरीर भी तेजो-मय था। ऐसा देदीप्यमान कि मैं उस ओर देख नहीं सकता था। उस व्यक्ति का मुँँह और भौंहें बहुत टेढ़ी थीं। रूप अत्यन्त भयङ्कर था। उसके धरती पर पैर रखते ही खूब ज़ोर से भूकम्प होने लगा और आकाश से तारे टूट टूट कर गिरने लगे। वह भयानक रूपधारी व्यक्ति धरती पर उतरते ही मेरी ओर अग्रसर होने लगा। उसके हाथ में एक अग्निमय जलता हुआ त्रिशूल था। वह मेरी ओर शूल उठा कर वज्रस्वर से बोला-–"अरे पापिष्ट!
क्या इतने पर भी तेरे मन में अनुताप न हुआ। तो अब तू मर।" यह कह कर वह शूल लेकर मुझको मारने पर उद्यत हुआ।
उस समय मेरे मन में जैसा डर हुआ था उसे मैं इस समय किसी तरह कह कर समझाने में अक्षम हूँ। निद्रित अवस्था में जो मुझे भय हुआ था वह तो हुआ ही था, जागने पर भी घंटों तक कलेजा धड़कता रहा। उसकी वह भयङ्कर मूर्ति और वह वज्रस्वर अब भी जी से नहीं भूलता।
मैं यथार्थ में अभागा हूँ। क्योंकि ईश्वर के सम्बन्ध में मेरा कोई ज्ञान न था। मैंने अपने पिता से जो कुछ शिक्षा पाई थी वह, इतने दिन कुसंगति में पड़े रहने से, एकदम लुप्त हो गई थी। सम्पत्ति में ईश्वर से डरना, विपत्ति के समय उन्हीं के ऊपर निर्भर होकर रहना, और विपदा से मुक्त होने पर हृदय से उनका कृतज्ञ होना मैंने नहीं सीखा। इतने दिन जो भाँति भाँति के क्लेश सह रहा हूँँ, वह मेरे ही पाप का फल है या ईश्वर का दिया दण्ड है--यह मैं कभी न समझता था। पिता की आज्ञा के विरुद्ध आचरण कर के मैं पशु की भाँति सब कष्टों को सहता गया। जब मैंने विपत्ति से छुटकारा पाया तब भी मेरे मन में कृतज्ञता का भाव उदित न हुआ।
बीच बीच में बिजली की चमक की तरह हृदय में एक अनिर्वचनीय आनन्द की झलक आ जाती थी, पर वह स्थिर न रहती थी। उस आनन्द को स्थायी करने की चेष्टा करने से कदाचित् प्रेमानन्द प्राप्त हो सकता। भयङ्कर विपत्ति में जब आशा का क्षीण प्रकाश उदित होता है तब उसे ईश्वर की करुणा समझ कर हृदय में धारण करते नहीं बनता। इस तरह का विचार कभी मेरे मस्तिष्क में आता ही न था।
किन्तु इस समय मैं, असहाय अवस्था में, ज्वर से पीड़ित हो कर सामने मृत्यु की विभीषिका देखने लगा। ज्वर की पीड़ा से शरीर दुर्बल, निस्तेज और निःशक्त हो गया। तब इतने दिनों की निद्रित-प्राय धर्म्म-बुद्धि और विवेक कुछ कुछ जाग्रत होने लगा। ज्वर की यातना और विवेक की ताड़ना से मैं उसी अज्ञान दशा में ईश्वर की उपासना करने लगा। मैंने ईश्वर से क्या प्रार्थना की, उनसे क्या माँगा, यह स्मरण नहीं। याद केवल इतना ही है कि अश्रु से बिछौना और तकिया भीग गया था। इतनी देर में सुध आई कि पिता ने कहा था--"बाप की बात टालने से भगवान् अप्रसन्न होंगे और तुम्हारा अकल्याण होगा।" आज मैं इस वाक्य की सच्चाई का अनुभव करने लगा। मैंने खूब ज़ोर से चिल्ला कर कहा--"भगवन्!
इस सङ्कट में तुम मेरी रक्षा करो।" ईश्वर से यही मेरी पहली प्रार्थना थी।
२८ जून--सोने से कुछ आराम पा कर मैं जाग उठा। ज्वर उतर चुका था। स्वप्न में जो भयङ्कर दृश्य देखा था वह जागने पर भी आँखों के सामने मानो नाच रहा था। यद्यपि स्वप्न का प्रभाव तब भी मेरे मन में पूर्ण-रूप से विद्यमान था। तथापि यह जान कर कुछ धैर्य हुआ कि ज्वर आने की पारी कल होगी। आज जहाँ तक हो सके कल के लिए सब चीज़ों का बन्दोबस्त कर लेना चाहिए। सबसे पहले एक बड़ी चौपहलू बोतल में पानी भर कर सिरहाने के समीप टेबल पर रख दिया और पानी का विकार दूर करने के लिए उस बोतल में थोड़ी सी शराब डाल दी। इसके बाद बकरे का मांस पकाया, पर अरुचि के कारण कुछ खा न सका। मैं धीरे धीरे टहलने लगा। किन्तु शरीर अत्यन्त दुर्बल था और मन चिन्ता के बोझ से दबा हुआ था। कल फिर ज्वर की यातना भोगनी पड़ेगी, इस भावना से चित अत्यन्त दुखी था। रात में कछुए के तीन अंडों को पका कर खाया। मैंने अपने जीवन में आज ही पहले पहल भगवान् को निवेदन कर के भोजन किया।
मैंने ज़रा बाहर घूमने की चेष्टा की। परन्तु दौर्बल्य इतना था कि मैं बन्दूक़ न उठा सका। बिना बन्दूक़ लिये मैं कभी बाहर टहलने नहीं जाता। इससे निरस्त हो कर कुछ दूर आगे जा धरती पर बैठ रहा। देखा, सामने अनन्त उदार नीला समुद्र है, माथे के ऊपर अनन्त नील आकाश है, इन दोनों के बीच मैं एक क्षुद्रत्तम जीव हूँ। तब मेरे जी में यह भावना होने लगी कि यह जो विशाल समुद्र-मेखला पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है, ये जो कितने ही देश भिन्न भिन्न प्रकार के दिखाई देते हैं, ये सब क्या हैं?
इन की उत्पत्ति कहाँ से कैसे हुई? अथवा ये जो भाँति भाँति के स्थावर, जङ्गम, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि देख पड़ते हैं, यही क्या हैं? हम लोग पहले क्या थे? कहाँ से किस तरह आये? वह कौन सी गुप्तशक्ति है जो इन विचित्र पदार्थों की रचना कर के एक अद्भुत कला दिखला रही है? मैंने मन ही मन सोचते सोचते यह निश्चय किया कि वह शक्ति ही परमेश्वर है, वही संसार का कर्ता हर्ता सब कुछ है। उसीके इशारे पर, उसीके भृकुटि-विलास पर संसार के सभी काम हो रहे हैं।
यह विचार-परम्परा उत्तरोत्तर मेरे मन में अपना घर बनाने लगी। मैं चिन्ता से व्याकुल हो उठा और दीवार के सहारे धीरे धीरे अपने घर की ओर चला। घर के भीतर आ कर मैं बिछौने पर लेट रहा। तब भी मुझे नींद न आई। मैं कुरसी पर बैठ कर सोचने लगा, कल फिर बुखार चढ़ेगा। जी में अत्यन्त डर लगा। एकाएक मुझे यह बात याद हो आई कि ब्रेज़िल के लोग किसी औषध का सेवन नहीं करते। सभी रोगों में उनका एकमात्र औषध है तम्बाकू। मेरे साथ भी थोड़े से तम्बाकू के पत्ते थे।
मैं सचमुच ही भगवान् के द्वारा प्रेरित हो कर दराज़ के पास गया। दराज़ खोलने पर मुझे देह और मन का औषध एक ही साथ मिला। दराज़ से तम्बाकू और एक धर्मशास्त्र (बाइबिल) का ग्रन्थ ले कर मैं टेबल पर, जहाँ चिराग़ रक्खा था, आया। तम्बाकू से ज्वर की चिकित्सा किस तरह की जाती है, यह मैं न जानता था। और तम्बाकू की इस आसुरी चिकित्सा से मेरे घर में फ़ायदा होगा या नुक़सान, इसका भी मैं कुछ निर्णय न कर सका। तो भी मैंने अनेक उपायों से तम्बाकू सेवन करने का संकल्प किया। कैसा ही कोई औषध क्यों न हो वह बीमारी में कुछ न कुछ फ़ायदा कर सकता है। मैं पहले थोड़ी सी तम्बाकू लेकर चबाने लगा। तम्बाकू खाने की मुझे आदत न थी, इससे थोड़ी ही देर में सिर घूमने लगा। इसके बाद मैंने थोड़ी सी पत्ती को शराब में भिगो कर रक्खा। यह इसलिए कि उसे सोने के समय पीऊँगा। आख़िर मैंने एक मलसे (मिट्टी के बर्तन) में तम्बाकू रख कर आग पर रख दी। तम्बाकू जलने पर उसका धुआँ ऊपर की ओर उठने लगा। मैं उस धुएँ का गन्ध ग्रहण करने लगा। किन्तु मैं आग का उत्ताप और उस धुएँ का उत्कट गन्ध सहन न कर सका।
इसके बाद मैंने पढ़ने की इच्छा से बाइबिल हाथ में ली, परन्तु मेरा सिर इस कदर घूम रहा था कि पढ़ न सका। पोथी खोलते ही जिस जगह दृष्टि पड़ी वहाँ लिखा हुआ था--संकट में मेरी शरण गहो, मैं तुमक संकट से उबारूँगा और तुम मेरी महिमा का कीर्तन करोगे।
यह बात मेरे जी में बहुत ठीक जँची। यह मेरे मन में एक तरह से अङ्कित होगई, किन्तु "उबारूँगा" शब्द का ठीक अर्थ उस समय मेरी समझ में न आया। अपना उद्धार होना मुझे इतना असंभव मालूम होता था कि मेरे अविश्वासी मन में यों प्रश्न उठने लगा--क्या ईश्वर यहाँ से मेरा उद्धार कर सकेंगे?
यद्यपि बहुत दिनों से उद्धार होने की कोई संभावना देख नहीं पड़ती थी तथापि आज से मेरे मन में इस वाक्य पर कुछ कुछ भरोसा होने लगा।
तम्बाकू का नशा मेरे मस्तिष्क पर अपना पूर्ण अधिकार जमाने लगा। मेरी आँखें झपने लगीँ। सोने के पहले मैंने धरती में घुटने टेक कर भगवान् से प्रार्थना की। अपने जीवन में भक्ति-पूर्वक आज ही मैंने ईश्वर से क्षमा माँगी। ईश्वराराधन के बाद तम्बाकू से मिली हुई शराब को मुँह में डाला। वह ऐसी कड़वी और तेज़ थी कि घोटी नहीं जाती थी। किसी किसी तरह घोट कर सो रहा। पीछे रात में कहीं कोई आवश्यकता हो, इस कारण चिराग़ को न बुझाया। उसे जलता ही रहने दिया।
तम्बाकू का नशा धीरे धीरे मेरे सर्वाङ्ग में फैल गया। मैं शीघ्र ही गाढ़ी नींद में सो गया। जब मेरी नींद टूटी तब तीन बजने का समय था। मालूम होता है, दो दिन दो रात तक बराबर सोकर आज तीसरे दिन तीसरे पहर मेरी नींद खुली। कारण यह कि कई वर्ष बाद मैंने देखा कि तारीख़ की गणना में एक दिन न मालूम कैसे घट गया था। सोचते सोचते मैंने इस बात का पता लगाया कि तम्बाकू के नशे में सारी रात सोकर दूसरे दिन भी मैं दिन-रात सोता ही रहा और तीसरे दिन तीसरे पहर में मेरी आँख खुली। बेहोशी के कारण यह बात उस समय मेरी समझ में न आई। तीसरे दिन को मैं दूसरा दिन समझ बैठा। इसीसे तारीख़ में एक दिन की कमी हो गई।
जो हो, जब मैं जाग उठा तब शरीर हलका मालूम होने लगा और मन भी बहुत प्रसन्न और फुरतीला था। मैं उठकर खड़ा हुआ तो देखा कि पूर्व दिन की अपेक्षा शरीर में कुछ ताक़त मालूम हुई और भूख भी इसके दूसरे दिन भी ज्वर न हुआ बल्कि तबीअत बहुत अच्छी थी। आज २९ वीं तारीख़ है।
तीसवीं जून--आज बुख़ार के आने का दिन न था। मैं बन्दूक़ लेकर बाहर गया, पर बहुत दूर न जा सका। मैं हंस की क़िस्म के दो जल-पक्षियों को मार कर घर लौट आया। किन्तु उनके खाने की इच्छा न हुई। कछुए का अण्डा खाया। खाने में बहुत अच्छा लगा। आज भी सेाने के समय तम्बाकू मिली थोड़ी सी शराब पी ली। तो भी दूसरे दिन कुछ जाड़ा मालूम हुआ। पर ज्वर का वेग प्रबल न था। आज पहली जुलाई थी।
दूसरी जुलाई--आज तम्बाकू का विविध प्रक्रिया से अर्थात् चूर्ण, धूम और काढ़ा बना कर सेवन किया।
ज्वर एकबारगी जाता रहा। किन्तु पूर्ववत् बल प्राप्त करने में कई सप्ताह लगे। मेरे मन में हमेशा ही इस बात का स्मरण बना रहने लगा, "मैं तुम्हारा उद्धार करूँगा।" मैं इस विपत्ति से उद्धार पाने की चिन्ता से ऐसा व्याकुल हो उठता था कि पहले की कई बार की विपदाओं से उद्धार पाने की बात एकदम भूल जाता था। किन्तु कुछ ही देर में चैतन्य होने पर मेरा चित्त कृतज्ञता से फूल उठता था। आज हाथ जोड़ कर और घुटने टेक कर भगवान् को, रोग मुक्ति के लिए, मैंने धन्यवाद दिया।
मैं अब सुबह और शाम दोनों वक्त बाइबिल पढ़ने लगा और अपने व्यतीत जीवन की अधार्मिकता पर अत्यन्त व्यथित और लज्जित होने लगा। मैं स्वप्न की बात स्मरण कर के भगवान् से क्षमा की भिक्षा माँगता, अपने पाप पर बार बार अनुताप करता और एकाग्र मन से ईश्वर का ध्यान करता था। मनुष्य-जीवन की सार्थकता के लिए यही मेरी प्रथम उपासना थी, भगवद्-वाक्य में यही मेरा प्रथम विश्वास था। भगवान् मेरी प्रार्थना सुनेंगे, इस आशा का आरम्भ इसी समय से मेरे मन में हुआ। उद्धार का नवीन अर्थ आज मेरे हृदय में प्रतिभासित हुआ। पाप के पंजे से, मन के मोहरूपी कारागार से, स्वार्थपरता के एकावलम्बन से उद्धार पाना ही यथार्थ उद्धार है। मैं समझ गया कि इस द्वीप से उद्धार होने की अपेक्षा अन्यान्य दैहिक और मानसिक अवस्थाओं से पहले मेरा उद्धार होना आवश्यक है। इस जनशून्य द्वीप से छुटकारा पाने का उद्वेग दूर हुआ। इसके लिए मैंने फिर ईश्वर से कभी प्रार्थना भी नहीं की।
इस समय मेरी जीवनयात्रा कष्टकर होने पर भी मेरा चित्त शान्त भाव से सन्तुष्ट था। मैंने जो हृदय में शान्ति पाई थी उसका पहले कभी अनुभव तक न हुआ था। मैं धीरे धीरे बलिष्ठ हेकर फिर यथासाध्य घर का काम धन्धा करने लगा।
मैंने जिस उपचार के द्वारा ज्वर में चिकित्सा की थी उसीसे मेरा ज्वर जाता रहा या श्राप ही निवृत्त हुआ, यह मैं नहीं जानता। किन्तु इस प्रक्रिया से मेरा शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था और बीच बीच में नाड़ी और अङ्ग प्रत्यङ्ग में पीड़ा हुआ करती थी। इस ज्वर से मुझे थोड़ा सा सही ज्ञान हुआ कि बरसात में मस्तिष्क की दशा अच्छी नहीं रहती और ज्वर विशेष अस्वास्थ्यकारी होता है। शरद ऋतु की वर्षा से ग्रीषम की वर्षा विशेष हानिकारक होती है।
इस निरानन्दकारी द्वीप में आये मुझे दस महीने से ऊपर हुए। मालूम होता है, इस द्वीप की सृष्टि होने से लेकर अब तक मेरे सिवा, कोई मनुष्य आज तक यहाँ न आया था। इस समय इस टापू को एक बार अच्छी तरह देखने की इच्छा हुई।
१५ जुलाई से मैंने इस द्वीप की देख भाल करना आरम्भ किया। मैं जिस जगह खाड़ी के भीतर बेड़े से उतरा था उस खाड़ी में कछार ही कछार जाकर देखा कि उसके किनारे कहीं कहीं हरित क्षेत्र हैं। एक जगह देखा कि तम्बाकू के बड़े बड़े पेड़ बहुतायत से उगे हैं। कई एक पेड़ जंगली ऊख के भी देख पड़े। आज यहीं तक देख कर लौट आया।
दूसरे दिन और आगे बढ़ कर एक जंगल से घिरी हुई जगह पहुँचा। वहाँ पेड़ों में भाँति भाँति के परिचित और अपरिचित फले हुए फलों को देख कर मैं अत्यन्त आह्लादित हुआ। परिचित फलों में देखा कि कितने ही पक्के तरबूज़ लगे हैं और रस से परिपूर्ण आङ्गर के गुच्छे के गुच्छे पके हुए हैं। यह विचित्र मधुमय आविष्कार देख मैं अंगूर के गुच्छे तोड़ कर खाने लगा। मैं जानता था कि अधिक अंगूर खाने से कितने ही लोगों को ज्वर हो जाता है और उससे उनकी मृत्यु हो जाती है। इस भय से मैंने अधिक नहीं खाये। मैंने इन फलो का संग्रह करना चाहा, और उन्हें सुखा कर किसमिस की तरह रखना चाहा। इन्हें सुखा कर रखने से यह लाभ सोचा कि जब अंगूरों का समय न भी रहेगा तब भी मधुर और पुष्टिकारक खाद्य की कमी न होगी।
मैंने सारा दिन वहीं बिताया। रात को भी घर लौट कर नहीं आया। इस द्वीप में प्रथम दिन जैसे पेड़ पर चढ़ कर रात बिताई थी उसी तरह आज की रात भी बिताई। सवेरे उठ कर लगातार चार मील उत्तर ओर जाकर एक पहाड़ की तलहटी में पहुँचा। वह स्थान हरियालियों और भाँति भाँति के पेड़-पौधों से ऐसा सुशोभित मालूम होता था जैसा कोई सुन्दर उद्यान हो। नारियल, नारङ्ग, काग़ज़ी और बीजपूरक नींबू के पेड़ इस अधिकता से उपजे थे कि एक उपवन सा प्रतीत होता था। किन्तु ये सब जङ्गली थे और फल भी उनमें कम ही थे। मैंने कुछ नींबू तोड़ लिये पानी में नीबू का रस डाल कर जो शरबत बनाया वह बड़ी अच्छी ठंडाई और बलकारक जँचा। बरसात का मौसम करीब आ पहुँचा। इसलिए अभी से बरसात के लिए खाद्य-सामग्री का सञ्चय करना आवश्यक जान जहाँ तक हो सका अंगूर, नींबू आदि फल तोड़ लिये। दूसरी बेर थैली लाकर और उन्हें उसमें भर कर घर ले आने का विचार किया। तीन दिन बाद में घर को लौट आया। अभी मैंने तम्बू को ही घर बना रक्खा था।
घर आते आते जो अंगूर खूव पके थे वे आप ही आप फट गये और उनका रस बह गया। नींबू ठीक थे। किन्तु बहुत तो ला नहीं सका था।
१६ वीं तारीख को दो छोटी थैलियाँ लेकर मैं फल बटोरने के लिए फिर बाहर हुआ। कल जिन पेड़ों में गुच्छे के गुच्छे फल लदे थे, आज उनमें अधिकांश कटे फटे और खाये हुए तथा नीचे गिरे पड़े थे। यह देख कर मैंने समझा कि किसी जङ्गली जानवर ने इन फलों की ऐसी दुर्दशा कर डाली है। किन्तु उस जन्तु का मैं ठीक ठीक पता न लग सका। जो हो, जितने फल थे वे ही मुझ अकेले के लिए काफ़ी थे। जितने मुझ से बने उतने नींबू ले लिये। किन्तु अंगूर मारे रस के फटे जा रहे थे। वे थैली में भर कर ले जाने येाग्य न थे। यह समझ कर मैंने अंगूर की डाल को झुका देना ही अच्छा समझा। इससे अंगूरों के दब जाने का भय न था और दूसरा फ़ायदा यह कि वे धूप में सूख भी जायँगे।
घर लौट कर मैं उस रमणीय स्थान के विविध फलों की बात सोचने लगा। मैं ही यहाँ का निष्कणटक एकाधिप हूँ, इस सम्पूर्ण द्वीप पर मेरा ही एकाधिपत्य है। अब मेरे मन में यह ख़याल पैदा हुआ कि मैंने जहाँ घर बनाया है वह जगह इस द्वीप में सब स्थानों की अपेक्षा निरानन्दकर है। उस प्राकृतिक उद्यान में यदि कहीं एक निरापद स्थान मिल जाय तो वहीं रहने लगूँगा। यह मैंने अपने मन में स्थिर किया।
उस प्राकृतिक उपवन में घर बनाने की लालसा बहुत दिनों तक मेरे मन में रही। किन्तु आगे-पीछे की बातें सोच कर उस लालसा को मन से हटा दिया। मैंने फिर यह बात सोची कि समुद्र के तट में हूँ। कदाचित् कोई सुयोग यहाँ से जाने का मिल भी सकता है। जो अभाग्य मुझ अकेले को खींच कर यहाँ ले आया वह किसी दिन मेरे सदृश किसी दूसरे हतभाग्य को भी ला कर मेरे पास पहुँचा सकता है। यहाँ रहने से यह घटना कदाचित् हो भी सकती है, किन्तु समुद्रतट से दूर पहाड़ में या जङ्गल में आश्रय लेने से उद्धार की आशा एकदम छोड़ ही देनी होगी। जिस किसी अभिप्राय से क्यों न हो, वह स्थान मुझे इतना पसन्द था कि जुलाई तक का मेरा समय वहीं कट गया। मैंने वहाँ एक कुञ्जभवन बना कर चारों ओर से उसे अच्छी तरह घेर दिया। ऊँचे ऊँचे खम्भों से घर को खूब मज़बूत कर दिया। यहाँ भी
उसी तरह सीढ़ी से हो कर जाने-आने की व्यवस्था की।बिल्ली तीन बच्चों को साथ लेकर आगई। उसे देख कर मुझे बड़ा अचम्भा हुआ।-
यहाँ कभी कभी लगातार तीन चार रातें बड़े मजे में कट जाती थीं। यह मेरे दिल बहलाने की जगह हुई और वह रहने की।
यह सब करते धरते अगस्त का महीना आ पहुँचा और पानी बरसना शुरू हुआ। यद्यपि तम्बू खड़ा कर के उसमें रहने का सब सामान ठीक कर लिया था, तथापि वहाँ झड़ी से बचने के लिए कोई पर्वत की ओट न थी। अगस्त से ले कर कुछ दिन अक्तूबर तक इस तरह वर्षा हुई कि घर से बाहर निकलना मेरे लिए कठिन हो गया। वर्षा आरम्भ होने के पहले अंगूर के कोई दो सौ गुच्छे सुखा कर मैंने रख लिये थे।
कुछ दिन से मेरी बिल्ली कहाँ चली गई थी। उसका कुछ पता न था। मैंने समझा, शायद वह मर गई। वर्षा आरम्भ होते ही देखा कि वह तीन बच्चों को साथ ले कर आ गई। उसे देख कर मुझे बड़ा अचम्भा हुआ। किन्तु उस दिन से मैं बिल्लियों के उपद्रव से हैरान हो गया। झुण्ड की झुण्ड बिल्लियाँ आने लगीं। तब मैं उनको भगाने की फिक्र में लगा। आख़िर जब मैं उन्हें यों न भगा सका तब गोली मारना शुरू किया।
बरसात के पानी में भीगने के भय से मैं बाहर न जाता था। इधर खाद्य-सामग्री भी समाप्त हो चली। मैं सुयोग पा कर दो दिन बाहर निकला। एक दिन एक बकरा और दूसरे दिन एक कछुआ शिकार में मिला। कछुआ खाने में बड़ा स्वादिष्ठ था। आज कल मेरे खाने का यह नियम था कि सवेरे सूखे अंगूरों का एक गुच्छा, दोपहर को बकरे या कछुए का भुना हुआ मांस और रात को कछुए के दो तीन खाता था। मेरे पास ऐसा कोई बर्तन न था जिसमें मांस को पका कर शोरवा बनाता।
वर्षा बन्द होने पर मैं गुफा को खोद कर पार्श्व की ओर बढ़ाने लगा। उससे मेरे घर के बगल में जाने-आने का एक दर्वाज़ा सा बन गया। किन्तु यह द्वार ठीक नहीं जान पड़ा। मैं पहले घेरे के भीतर जैसा निश्चिन्त होकर रहता था वैसा अब न रह सकता था। यद्यपि इस द्वीप में सब से बड़ा जानवर जो देखने में आया वह बकरा ही था तो भी किसी के अतर्कित आक्रमण की आशङ्का बनी रहती थी।
आज ३० वीं सितम्बर है। आज इस द्वीप में आने का मेरा वार्षिक दिन है। लकड़ी के तख़्ते पर तारीख़ के चिह्नों को गिन कर देखा, यहाँ आये ३६५ दिन हो गये। आज के दिन मैंने उपवास किया। दिन भर भूखा रह कर मैंने बड़े विनीत भाव से केवल परमेश्वर का भजन किया। सूर्यास्त होने पर एक बिस्कुट और थोड़े से सूखे अंगूर खाकर पारण किया। इसके पहले, धर्म क्या चीज़ है इसे कुछ न समझ कर, मैं पर्व के दिन भी परमेश्वर का नाम न लेता था। इस समय मैंने अपनी काष्ठ-पञ्ची (पत्रा) की दिन-संख्या के चिह्न के सात सात विभाग करके रविवार का निर्णय करलिया। पीछे से मुझे मालूम हुआ कि गिनती में एक दिन किसी तरह कम हो गया है। मेरे पास स्याही बहुत कम रह गई थी, इसलिए जीवन की विशेष घटना को छोड़ और दैनिक समाचार नहीं लिख सकता था।
धान के पौदे क्रमशः बढ़ने लगे। नवम्बर में आकर वर्षा रुक गई। मैं फिर अपनी विनोदवाटिका में गया। यधपि कई महीनों से वहाँ नहीं गया था तथापि वहाँ जिन वस्तुओं को जैसे रख आया था उन्हें उसी रूप में पाया। कुञ्जनभवन के चारों ओर जिन पेड़ों का घेरा दिया था, वे अब अच्छी तरह लग गये हैं और उनकी डालें तथा पत्ते चारों ओर फैल गये हैं। मैंने उनके नूतन डाल पत्तों को छाँट कर एक सा कर दिया। तीन वर्ष में वे पेड़ से झंखाड़ होकर, पचीस फुट व्यास के एक वृत्ताकार स्थान को अपनी शाखाओं से ढक कर, शोभायमान होने लगे। उन्होंने एक ऐसा सुन्दर छायाशीतल कुञ्जवितान निर्माण किया कि उसकी शोभा बरनी नहीं जाती। यह देख कर मेरे मन में यह इच्छा हुई कि अपने निवास-स्थान के सामने अर्घ वृत्ताकार में इन पेड़ों का एक घेरा बनाऊँ। पहले के घेरे से आठ फुट के अन्तर पर इन पेड़ों को मैंने पंक्तिबद्ध रोप दिया। पेड़ शीघ्र ही लग गये और पल्लवित होकर प्रथम तो घर के आच्छादक और दूसरे रक्षा के कारण हो उठे।
अब भी दो तीन प्रधान वस्तुओं की कमी बनी रही। एक तो कुछ बोतलों के सिवा पतली चीज़ रखने को कोई बर्तन न था और न कोई रसोई बनाने ही का पात्र था। दूसरे तम्बाकू पीने का नल भी न था।
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